तुकबंदी में एक सपाट बयानः
आओ बच्चों सुनो एक कहानी
बिल्कुल भी नहीं है बहुत पुरानी
इसी देश में एक है साधू
बाकी साधुओं की तरह शातिर
धूर्तता में सबका बाप
धर्मोंद की खेती
और नफरत की सियासत में
देता संघी प्रचारक को मात
लंपटों की उसने एक फौज बनाया
बनाते जो मासूमों का मजाक
नाम हो अगर असगर या शफीक
तो लगाकर बंदेमातरम् का पोस्टर
कर देते उसे हलाक
देता भक्तों आदेश
कब्र से खोदकर करने को
मुस्लिम औरतों से बलात्कार
और फैलाने की अफवाह
रहे अगर अल्प संख्यक आज़ाद
बहुसंख्यक हो जाएगा बर्बाद
भक्त की जहालत तो
उसकी परिभाषा ही है
ताक पर रख कर दिमाग
मिशनरी भाव से
शब्दशः फैलाता वह यह बात
इसीलिए अफवाहों में होता नहीं विरोधाभास
नाजियों ने जर्मनी में यही किया था
मुल्क ही नहीं धरती को तबाह कर दिया था
12 वर्षों तक मचाता रहा था
दुनिया में हाहाकार
नफरत से याद करता है इतिहास
मानवता पर उसके अत्याचार
मरा हिटलर छिपकर बिल में
डरपोक, चोर चूहे की तरह
मगर धरती और मानवता को
अपूरणीय क्षति पहुंचाकर
उसी तरह राज्य के बहुमत ने
ढोंगी को मान लिया भगवान
पता नहीं भय से या भक्ति-भाव से?
वैसे दोनों में फर्क महज तकनीकी है
उसी तरह जैसे इस मुल्क के लोगों ने
एक जुमलेबाज को मान लिया था
विष्णु का कल्कि अवतार
कुछ ही महीनों केमें पहुंचा चुका राज्य को अपूरणीय नुक्सान
कटा दिए गूलर के पेड़ मानकर अपशकुन
बंद कर दिए बूचड़खाने
और लगा दिया बच्चों की पढ़ाई की रकम
कांवड़ियों की सुख-सुविधा संपन्न यात्रा में
मर गये जब 63 बच्चे इसी के शहर के अस्पताल में
इसका बीमारू मंत्री कहता है
अगस्त होता ही है बच्चों के मरने का महीना
बताया नहीं मगर उस महीने का नाम
मरता है जिसमें जाहिल, लंपट और कमीना
है यह जिस सूबे की बात मैं भी वहीं पैदा हुआ और पला हूं
उसी की माटी की खुशबू में बाभन से इंसान बना हूं
थी तब भी गांवों हिंदू-मुसलमान की अलग पहचान
उसी तरह जैसे बाभन-ठाकुर; अहीर-कुर्मी; बढ़ई-लोहार की
लेकिन इससे पहले, शायद बहुत पहले थे सब संवेदनशील इंसान
नहीं देते थे मंत्री नौनिहालों की मौत पर हैवानियत का ऐसा बयान
ऐसा नहीं है कि बहुत न्यायपूर्ण था तबका समाज
नहीं था मगर नफरत का ऐसा भयावह अंदाज
(ईमि: 13.08.2017)
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