Thursday, March 27, 2014

निजता सामाजिकता की ही एक प्रमेय



बदल दो इंतजार में तार-तार हुए पर्दे को
फिर भरो सुर्खी  जर्द चेहरे पर
और बना आंखों में छलकते तक़लीफ के समंदर को संबल
भरो अंतरिक्ष की  नई उड़ान
बदल दो इंतजार के समीकरण के पद-पात्र
सच प्रेम है एक निहायत निजी मामला
घटती है मगर जैसै-जैसे पारस्परिकता और समानुभूति
और बढ़ता है टकराव अहंकारों का
पार कर निजता की सीमा की मर्यादा
प्यार बन जाता है  एक सामाजिक मसला
दर-असल निजता सामाजिकता की ही एक प्रमेय है
(ईमिः28.03.2014)

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