Monday, March 17, 2014

याद-ए-लखनी

एक बार मैं भी यह बेवकूफी कर चुका हूं. बात 1978 की है, होली की नहीं उसके आस-पास की. हम लोगों का  एक कमबख़्त  दोस्त है, जावेद रसूल, हमारे ही जिले (आज़मगढ़) का. खुर्शीद को खुर नाम हमीं दोनों ने दिया था. 50-60 फीट दूर से देखने पर पता नहीं चलता था कि दाढ़ी रखे है. मैं और खुर उसे रसूलुल्ला कहते थे. ये फूटनोट के साथ कहानी शुरू करने की कु-आदत बुढ़पे तक चली आयी. खैर रसूल के बारे में फिर कभी. ओल्ड कैंपस लाइब्रेरी के बाहर बिशाल हरे मैदान के आखिर में अम्माजी के ढाबे जामुन के पेड़ के नीचे चाय-मंडली की चर्चा में लखनी (डंडी) का ज़िक्र आया और मैंने कहा यह पेड़ लखनी खेलने के लिए बहुत उपयुक्त होगा. इसके बाद जवेदा पेड़ पर चढ़ पाने के मेरे कौशल को चुनौती देने लगा और ताव-ताव में मैं चढ़ गया और तने से टेक लगाकर एक डाल पर बैठ गया. तभी निगाह पड़ी तमाशबीन लड़के-लड़कियों अर्धवृत्त पर और अपनी बेवकूफी के एहसास को छिपाने के लिए डाल पर ही चाय-सिगरेट के साथ थोड़ा दार्शनिक टच देने की कोशिस करने लगा. नाकाम. बहुत दिनें तक यह घटना अपनी लंपट मंडली के विमर्श का विषय बना रहा.

9-11 की उम्र में एक बार तो लखनी खेलते हुए नदी के किनारे एक जामुन के पेड़ की बहुत ऊंची डाल से गिर गया था, सौभाग्य से वह डाल नदी की तरफ थी और नदी में गिरा, वरना पता नहीं क्यया होता.  आज भी ठोढ़ी में उस वारदात का निशान मौजूद है. उस पारी के "चोर" ने चुनौती दी कि मुझे ही छुएगा. अगल-पगल, ऊपर-नीचे की डालियों पर उसे छकाने की बजाय मूर्खता में ऊपर ही चढ़ता गया और काफी ऊपर एक पतली डाल पकड़ कर मोटी डाल पर पैर चिकाने की सोचा तो हाथ वाली डाल टूट गयी. डाल से पानी तक की संक्षिप्त हवाई यात्रा में, ऊंचाई से पानी में कूदने की सुनी-सुनाई सारी विधायें याद आ रही थीं. फिर भी वस्तु के कम वजन के बावजूद mgh इतना था की वस्तु नदी के तल तक हपुंच गयी और ठुड्ढी, शायद शीपी से कट गयी. पानी की सतह पर खून तैरने लगा और जब तक उतराया नबीं सबकी जान अटक गयी थी. ठुड्ढी में फस जगह दाढ़ी नहीं उगती. 

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