मुक्तिगान
एक कविता पर इतनी कविताएं
एक कविता पर इतनी कविताएं
और एक से बढ़कर एक
कोई सहेजता है अश्क को
बचाने के लिए वनने से गर्द
तो कोई कराने को मुवक्किल से पैरवी
ज़मीं पर बढ़ाता है दर्द
कोई रात लंबी होने के अंदेशे में
रखता है महफूज़ चराग
तो कोई कोसता है कलम को
जो दर्द बढ़ने पर
भरता है परवाज़
कितने भोले हैं ये ग़ज़लग़ो
रहते हैं अक्सर कल्पना लोक में
गढ़ते हैं अमूर्त रुमानियत
ढूंढ़ लेते हैं खुशी बड़े-से-बड़े शोक में
अश्क टपका है तो उसे मिटना है
है जिसका भी अस्तित्व तय है उसका अंत
कोई नहीं है साश्वत कोई नहीं अनंत
हो चाहे वो पापी चाहे हो वो संत
इसीलिए जब तक हैं अस्तित्ववान हम
करते रहें अस्तित्व के औचित्य का उद्यम
बढ़ने पर दर्द मौन रहेगा कलम अग़र
सज्जन बहुमत को करेगा कौन मुखर
होगा जालिम जितना सरमाये का राज
भरेगी कविता उतना ही ऊंचा परवाज़
शब्दों की दिशा को मगर संभालना होगा
विलाप नहीं उन्हें मुक्तिगीत में ढालना होगा
ध्वस्त करने होंगे वर्चस्व के सभी मठ
तोड़ना होगा महंत-मठाधीषों के हठ
ले चलना होगा ग़ज़ल को मजलूमों तक
मजदूर-ओ- महकूमों और किसानों तक
बनेंगे हमारे नग्में जिस दिन मुक्तिगान
जीत लेंगे तिमिर लाएंगे एक नया विहान
[ईमि/13.12.2013]
बहुत अच्छे बहुत लम्बी खींच लिये आज यहाँ तो आदत हो गई है अब
ReplyDeleteछोटी में मजा नहीं आता है लिखे जाओ बढ़िया है :)
हौसला अफजाई का शुक्रिया सुशील भाई
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