Thursday, June 27, 2019

जन्मदिन -- 1


जन्मदिन -- 1
विभिन्न मंचों पर, मेरी टाइमलाइन और इनबाक्स में बधाइओ की भरमार हो गयी और मैं आभासी दुनिया में इतने अप्रयाषित  शुभेच्छु पाकर मेरा दिल गार्डन-गार्डन हो गया. जिनकी बधाई पर अलग से आभार नहीं जता सका उनसे क्षमा-प्रार्थना के साथ हार्दिक आभार। मेसेज बॉक्स की आधे से अधिकबधाइयों का निजी आभार व्यक्त कर सका, बाकियों का अब एक साथ। कुछ मित्रों/स्टूडेंट्स ने बधाई के लिए फोन किया। सकबका हार्दिक आभार।  
 वैसे मैं आज तक नहीं समझ पाया की मैंने जन्मदिन मनाना क्यों शुरू किया सिवाय इसके कि इस दिन मयनोशी के लिए तिनके की आड़ का सहारा नहीं लेना पड़ता। सच कहें तो एक साल के लेखा-जोखा के बाद, हर बार पीछे देखता हूँ और काबिल-ए-जश्न बात ढूँढता हूँ। कुछ दिखता नहीं! दिल बहलाने को ख़याल आता है, "जीवन का कोई जीवनेतर उद्देश्य नहीं होता. एक अच्छी ज़िंदगी जीना अपने आप उद्देश्य है, बाकी अनचाहे परिणामों की तरह खुद-ब-खुद साथ चलते हैं.और कई बार अनचाहे  परिणाम, लच्छित परिणामों से ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं". मेरे दोस्तों की शिकायत रहती है कि मैं हर बात पर कहानी सुनाने लगता हूं। तो पैदा होने के जश्न पर तो कहानी बनती ही है.
मेरे प्रमाणपत्र तथा जन्मकुंडली के जन्मदिन में लगभग 5 महीने का फर्क है। दादाजी की कलात्मक लिखावट के नमूने के लिए कुंडली संरक्षित रखा हूं। जन्मकुंडली के हिसाब से मैं 26 जून (1955) को पैदा हुआ था, प्रमाणपत्र में  3 फरवरी 1954। मुझे कुंडली में लिखी विक्रम संवत का जन्मदिन याद था। मां  बड़की बाढ़ वाले साल का बताती थी। बड़की बाढ़ 1955 में आई थी। मैं प्राइमरी में काफी कूद-फांद  करके (प्री-प्राइमरी से कक्षा 1 तथा 4 से 5)  1964 में मैं जल्दी ( 9 की उम्र में) प्राइमरी पास कर गया। 1 मार्च 1969 को हाई स्कूल की परीक्षा देने के लिए न्यूनतम आयु 15 साल होनी चाहिए थी। बासदेव सिंह  (हेड मास्टर) 1954 फरवरी की जो भी तारीख मन नमें आई टीसीमें लिख दिया। 
 मेरे दादाजी पंचांग के विद्वान माने जाते थे इसलिए हम सब भाई-बहनों की जन्म कुण्डलियाँ बनी हैं, कुण्डली के अनुसार  मेरा जन्म आषाढ़, कृष्ण-पक्ष दशमी संवत (विक्रम) 2012 को हुआ था। मेरे बचपन और किशोरावस्था में पूर्वी उत्तर-प्रदेश के गाँवों में जन्मदिन मनाने का प्रचलन नहीं था, इसलिए कभी विक्रम (या शक जो भी पुरानी है) सदी की तारीख को ईश्वी शदी में तबदीली की जरूरत नहीं महसूस हुई। 1970 के दशक तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रावासों में भी ज्यादातर विद्यार्थी ग्रामीण पृष्ठभूमि के ही थे, इसलिए वहां भी जन्मदिन मनाने पर जोर नहीं था. कुछ शहरी लड़के मनाते थे।  1980 में किसी शोध के सन्दर्भ में तीनमूर्ति लाइब्रेरी में १९५० के दशक के कुछ हिन्दी अखबार माइक्रोफिल्म में देख रहा था। उन दिनों हिन्दी अखबारों में विक्रम(तथा शक संवत) की तारीख भी छपती थी, मन में आया अपना जन्मदिन भी क्यों न पता कर लूं? इस तरह प्राप्त नई जानकारी का जश्न तो बनता ही था। दोस्तों के साथ जे.एन.यु. के पार्थसारथी प्लेटो पर जमकर जश्न मनाया गया। तभी से हर साल २६ जून को जन्मदिन मनाता रहा। जश्न की कुछ अड्डेबाजियों तो अविस्मरणीय हैं।
एक बार फिर सब मित्रों का बधाई का हार्दिक आभार। बाकी फिर कभी। 

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