मेरे पास तो शिक्षा के मठाधीशों से मुठभेड़ की इतनी कहानियां हैं कि महीनों लग जाएगा उन्हें समेकित करने में। इलाहाबाद विवि में 1986 में मेरा इंटरविव 1 घंटा 19 मिनट चला। सही-सही समय का इसलिए पता है कि बाहर इंतजार में बैठे लोग क्लॉक कर रहे थे। निकलते ही केई बोला था, "मुबारक हो, 1 घंटा 19 मिनट"। उन दिनों मैं सेंटर फॉर विमेंस डेवेलपमेंट स्टडीज (सीडब्ल्यूडीयस) के लिए सांप्रदायिक विचारधाराओं में स्त्री की अवधारणा पर काम कर रहा था। आरपी मिश्र कुलपति थे। बात विचारधारा से शुरू हुई, अमेरिका में गुलामी और नस्लवाद वगैरह वगैरह से होती हुई मार्क्स के हेगेल के अधिकार के दर्शन और जर्मन विचारधारा के संदर्भों विचार और विचारधारा (मिथ्या चेतना) में फर्क पर खत्म हुई। 6 पोस्ट थीं, इंटरविव के बाद यूनियन की चाय की दुकान पर चाय पीते हुए सोचने लगा था कि तेलियरगंज में मकान लूं या नए विकसित हो रहे झूसी में? हा हा। नौकरी के मामले में मेरी कोई दूसरी प्रायार्टी नहीं थी, लेकिन रंग-ढंग ठीक नहीं किए। नास्तिक हैं, जब गॉडवै नहीं त गॉडफदरवा की क्या विसात? (बीच-बीच में एकाध साल अस्थाई नौकरी का समय छोड़कर) कलम की मजदूरी से ही घर चलाते रहे और गाहे-बगाहे इंटरविव भी देते रहे। 1995 में जब हम मान लिए थे कि अब बाकी जिंदगी भी कलम की मजदूरी से ही चलानी पड़ेगी कि तो दुर्घटना बस नौकरी मिल गयी। मेरी बड़ी बेटी 12 साल की थी, छोटी 7 की। यलआईजी न ढूढ़ पाने के कारण यचआईजी फ्लैट में रहते थे, अंग्रेजी स्कूल में बेटियां पढ़ती थीं। लेकिन सिर उठाकर जीने के साहस से जो बल मिलता है वह बेरोजगारी के कष्टों पर भारी पड़ता है। पराजित कर देता है। 1981 में पहला इंटरविव दिया था और 1995 में अंतिम। लगता नहीं कि इस जिंदगी में वक्त मिलेगा, मिला तो अपने इंटरविवज की ऐंथॉलॉजी लिखूंगा। शिक्षक यदि वाकई शिक्षक होते तो क्रांति हो जाती, लेकिन ज्यादातर अभागे हैं, नौकरी करते हैं और तीन-पांच। कल ही एक पुराना जेयनयू का मित्र मिला (उप्रसिविल सर्विस से सेवानिवृत्त) बोला 'अबे, रंग ढंग ठीक कर लेते तो रिटायरी के बाद दुगुनी पेंसन मिलती'। ई ससुरा पैसा के अलावा इन गधों के कुछ दिखता ही नहीं। जिसका सपना क्रांति हो वह जीरो बैलेंस जिंदगी काभी सुख भोगता है। मैंने मित्र से कहा कि वह सलाह देने में बहुत देर कर चुका है। मुझसे कोई कहता है कि मुझे देर से नौकरी मिली, मैं कहता हूं सवाल उल्टा है, मिल कैसे गयी?
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