Sunday, November 26, 2017

बेतरतीब 24 (किशोर यादों के झरोखे से 1)

किशोर यादों के झरोखे से 1
ईश मिश्र
यह फेसबुक पर इलाहाबाद के मेरे सुपर सीनियर और मेरे इवि ज्वाइन करने के पहले इवि छासंघ के अपने समय के लोकप्रिय अध्यक्ष (भूतपूर्व) की एक फेसबुक पोस्ट पर कमेट लिख रहा था आधे रास्ते सोचा इतना पोस्ट कर दूं तब तक पोस्ट गायब हो गई।

श्याम कृष्ण पाण्डेय: मैं तो सर आपसे निजी रूप से नहीं मिला हूं, लेकिन इवि छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में आपके बारे में जानता हूं। मैं 1972 में इवि में आया तब अरुण कुमार सिंह 'मुन्नां' अध्यक्ष और बृजेश कुमार सेक्रेटरी थे। आप और मोहन सिंह दोनों के कार्यकाल को लोग इज्जत से याद करते थे। मैं इस पर लंबा लेख लिखा था, खोजना पड़ेगा। 1984 के सिख नरसंहार के बाद का राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय के बाद ही भाजपा पुनः अपने आक्रामक सांप्रदायिक तेवर में आई और दीवारों हिंदू होने पर गर्व की इबादतें दिखने लगीं तथा राम मंदिर को मुद्दा बनाकर संघी गिरोहों ने आक्रामक अभियान शुरू किया। कांग्रेस प्रतिस्पर्धात्मक सांप्रदायिक हिंदू तुष्टीकरण में लग गयी।दुश्मन के मैदान में उसीके हथियार से लड़ेंगे तो हार निश्चित है। अडवानी के नेतृत्व में संघी गिरोहों ने शिलापूजन अभियान चलाया, लंपट सम्राट संजय गांधी की मौत के बाद विरासत संभालने के लिए, कॉमर्सियल पाइलट से राजनेता बने रानजनैतिक अपढ़ राजीव गांधी ने प्रतिस्पर्धा में मंदिर का ताला खुलवा दिया। मेरठ-मलियाना में विरोध प्रदर्शनों का क्रूर खूनी दमन और हाशिमपुरा में पीएसी द्वारा सैकड़ों मुसलमानों की सोची-समझी हत्याओं से कांग्रेस ने अपनी जड़ों में मट्ठा डालकर अपने सर्वनाश को आमंत्रित किया। क्या नाम है उसका, मनमोहन के बाद कांग्रेस में विश्व बैंक के दूसरे नंबर के दलाल का? चिदंबरम् जिसका नाम बड़ी मुश्किल से कमीनगी के किसी विशेषण के बिना ले पाता हूं। गृह मंत्री था, सुरक्षा बलों को संदेश दिया, 'खत्म कर दो' (फिनिश देम)। लेने-के-देने पड़ गए, 1989 में कांग्रेस बुरी तरह हारी। वीपी सिंह ने वही गलती की जो 1974 और 1977 में कन्फ्युजिआए जेपी ने अपने संपूर्ण-क्रांति के नारे के शगूफे में आरयसयस को अपना मुख्य सहयोगी बनाकर किया था। (मैं 1974 तक एबीवीपी में था, जिसके बारे में कभी लिखूंगा) भाजपा को ताकतवर बनाने में आरयसयस से अधिक कांग्रेस के कुकर्मों का योगदान है। राहुल गांधी के भाषणों में वही वैचारिक दरिद्रता दिखती है जैसी राजीव गांधी के 'हमने देखा है हम देखेंगे' में दिखता था। दोनों को ही कोई राजनैतिक रूप से परिपक्व भाषण लिखने वाला नहीं मिला। सर, कमेंट बहुत लंबा हो गया। अंत आत्मावलोचना से करना उचित होगा।
आज के इस दुर्दिन के लिए इस मुल्क के वामपंथी कांग्रेस ज्यादा नहीं तो कम जिम्मेदार नहीं है। समाजवादी तो कन्फुजिआए थे ही। लोहिया टॉर्च खुर्पी लेकर कम्युनिस्ट कांसिपिरेसी खोदते रहते थे और कम्युनिज्म तथा पूंजीवाद को एक सी आयातित विचार मानते थे और मरने के पहले दीनदयाल उपाध्याय से मिलकर कांग्रेस-विरोध के संयुक्त मोर्चे का सूत्र रच गए, जिसकी परिणति 1967 में तमाम राज्यों में कांग्रस में फूट और खिचड़ी संविद सरकारों में हुई। अंतिम परिणति जार्ज फर्नाडीसों और नीतिश कुमारों में। मैं तो 1968-69 में जौनपुर में 13-14 साल हाईस्कूल में पढ़ने वाला का गांव का लड़का था और आधुनिक शिक्षा में प्रवेश करने वाली पहली पीढ़ी का। उप्र मे चरण सिंह कांग्रेस से निकल कर भारतीय़ क्रांति दल बनाया और संविद सरकार के मुख्यमंत्री बने सिसमें समाजवादी और जनसंघ दोनो शामिल थे। किसान-मजदूर तथा छात्र आंदोलनों की दृष्टि से चरण सिंह की सरकार कांग्रेस से भी अधिक दमनकारी थी और खत्म हो गयी। सुचेता कृपलानी दुबारा सत्ता में आई कांग्रेस सरकार की मुख्यमंत्री बनीं।प्रतिक्रांतिकारी हिंदी आंदोलन में मैं भी जुलूस वगैरह में शामिल होता था। एक बार मैं बनारस गया था। काशी विवि के गेट पर लंका में छात्रों की विशाल सभा थी। सारे वक्ता हजारी प्रसाद द्विवेदी को पानी पी पी कर हर तरह के विशेषणों से सुशोभित कर रहे थे। वे रेक्टर और कार्यकारी कुलपति थे। (मेरी याद की गड़बड़ को कृपया और चंचल भाई दुरुस्त कर दें)। मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में तब कोर्स में शामिल उनके एक निबंध 'नाखून क्यों बढ़ते हैं' के द्वारा ही जानता था। लेकिन जिस भाषा में उन्हें 'सम्मानित' किया जा रहा था, अरुचिकर लगी थी। उसी आंदोलन के दौरान जौनपुर बस अड्डे पर एक सभा थी, औरों के नाम याद नहीं, देवब्रत मजूमदार भी शायद थे एक समाज समाजवादी युवजना सभा के नेता राम बचन पांडेय के भाषण में दिया गया घनघोर नारी विरोधी नारा आज भी शब्दशः याद है। इस नारे के आधार पर मैं अनुमान लहा रहा हूं कि चरण सिंह की सरकार गिर चुकी थी और सुचेता कृपलानी उप्र की मुख्य मंत्री थीं। यह भी हो सकता है कि यह घटना 1967 चुनाव के पहले की हो. दरियाफ्त करके सही कर दूंगा। 'यूपी में बांझ राज, दिल्ली में राण राज, उप्पर से कामराज, कैसे अइहैं राम राज'। उस समय मुझे इसमें कोई बुराई नज़र आई थी क्योंकि मैं ‘कुलीन’, कर्मकांडी, ब्राह्मण परिवार में पला-बढ़ा, संस्कारी, 13-14 साल का लड़का था। आज लगता है कि सामाजिक चेतना का स्तर कितना अधोगामी था।
इलाहाबाद विवि में आया तो पितृसत्तात्मक (मर्दवादी), वर्णाश्रमी संस्कृति गांव से ज्यादा किंतु परिष्कृत रूप में मौजूद थी। प्रोफेसरों की लामबंदी (गिरोहबाजी) जतिवादी थी। ब्राह्मण लॉबी और कायस्थ लॉबी। चंद ब्राह्मणेतर सवर्ण प्रायः ब्राह्मण लॉबी में थे। इतिहास के फ्रो.जीआर शर्मा थे तो भूमिहार लेकीन ब्राह्णण लॉबी के नेता थे। आरयसयस के कट्टर कार्यकर्ता प्रो. मुम जोशी (भूतपूर्व मानव संसाधन मंत्री) उस लॉबी के जूनियर नेता थे। कायस्थ लॉबी के नेता भौतिक शास्त्र के प्रो. कृष्णा जी थे। खैर इसके बारे में अलग से।
इलाहाबाद के समाजवादी युवजन सभा के कई नेता तो ऐसे थे कि उन्हें मालुम नहीं था समाजवाद क्या होता है? किन्ही-न-किन्ही निजी कारणों से वे संगठन में थे। जेयनयू आकर जो तमाम सुखद आश्चर्य हुए थे, उनमें एक यह भी था कि यहां तो छात्रसंघ का चुनाव ‘स्कॉलर’ किस्म के लोग चुनाव लड़ते हैं, लफ्फाज और बाहुबली नहीं, जिसके बारे में फिर कभी। एक छात्र नेता थे, पता नहीं नाम लेना चाहिए कि नहीं, लेकिन अभिव्यक्ति के खतरे उठाने के प्रति प्रतिबद्ध भी हूं। इविवि में आकर जिस बड़े, समाजवादी छात्र नेता के नाम से परिचित हुआ, वे थे श्री जगदीश चंद्र दीक्षित, वे शायद आपसे भी सीनियर होंगे। उनकी विशिष्ताएं थीं: निष्कासन और जेल यात्राओं की संख्या में कौन अधिक थी कहा नहीं जा सकता। दीर्घ कालीन छात्र थे, किसी-न-किसी कोर्स में प्रवेश ले लेते थे। भाषणों में ‘मात्रिभाषा’ के शब्दों का प्रयोग बहुतायत में करते थे। उनका एक भाषण का एक अंश मुझे याद है। “लोग कहते हैं मैं गाली गलौच की भाषा में बात करता हूं, लेकिन ट्रेन में चलते हुए जब टट्टी के रास्ते लोग डंडा डालते हैं तो मैं क्या कर सकता हूं।” टट्टी के रास्ते शब्द अंग का नाम लेने से ज्या वीभत्स लगा था। मेरे फर्स्ट यीयर (1972-73) में छात्र संघ का चुनाव नहीं हुआ था। दीक्षित जी निष्कासित थे। कारण मुझे नहीं मालुम और याद है लेकिन इतना रह सकता हूं कि इवि में उन दिनों किसी सामाजिक-शैक्षणिक मुद्दे पर कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हुए, इंतहाल की तारीख बड़वाने के अलावा। “दीक्षित नहीं चुनाव नहीं”। इस तरह 1971-72 के चुने अध्यक्ष और महासचिव क्रमशः कांग्रस के अरुण सिंह मुन्ना और एबीवीपी के ब्रजेश कुमार 1973-74 में भी अपने पदों पर बने रहे। अटल बिहारीबाजपेयी की नकल की शैला में लफ्फाजी करने वाला ब्रजेश कुमार अध्यक्ष चुना गया और बम-गालों की लफ्फाजी करने वाला रणबीर सिंह चौहान महा सचिव। ये और इनसे जुड़ी बाक बातें फिर कहीं, फिर कभी। दीक्षित जी से मेरी आखिरी मुलाकात 1977 में जेयनयू में हुई। मैं जेयनयू का छात्र बन चुका था और वे आगामी विधान सभा के लिए जनता पार्टी का टिकट मांगने आए थे। उनके बायोडाटा के एक वाक्य का जिक्र हम गाहे-बगाहे करते रहते थे, ‘प्रसेपा (प्रजा सोसलिस्ट पार्टी) – सोपा (सोसलिस्ट पार्टी) – संसोपा (संयुक्त सोसलिस्ट पार्टी) – पुनः सोपा। खैर दीक्षित जी को टिकट नहीं मिला था।
इलाहाबाद के समाजवादियों के बारे में बाकी बातें बाद में किसी और यादों के झरोखे से झांकूंगा, उनमें से कई, बाद में सुना, कांग्रेस में चले गए और कई भाजा में। यह बात अभी यहीं खत्म करता हूं जॉर्ज फर्नाडीस के साथ आखिरी मुलाकात के साथ। जार्ज इलाहाबाद अक्र आते रहते थे और रेल हड़ताल के बाद बहुत बड़े हीरो बन गए थे। मैं उनके वाग-कौशल का मुरीद था। “जैसे ही सुनाई दे अब फला से खबरें सुनिए, रेडिओ बंद कर दीजिए क्योंकि खबरें के नाम पर मनगढ़ंत झूठ बताया जाएगा....”। तब क्या पता थी कि इसकी नीयत आरयसयस की गोद में बैठकर गुजरात नरसंहार के बाद सामूहिक बलात्कार को सरलीकृत कर, असमान्य न कह, सामूहिक बलात्कारियों के साथ खड़े होने और हथियारों की दलाली करने में होगी। खैर असल बात पर आते हैं। नवनिर्मित जनता पार्टी संसद में बहुमत दर्ज कर चुकी थी। जॉर्ज के चेले उन्हें मंत्री बनने के लिए राजी करने की कोशिस कर रहे थे, और वे नखड़े कर रहे थे।  वीरेंद्र मिश्र समेत इलाहाबाद के कुछ समाजवादी छात्र नेताओं के साथ मैं भी वीपी हाउस, समाजवादी पार्टी के दफ्तर पहुंच गया। मैं चाहता था जॉर्ज रेल मंत्री बनें और रेल हड़ताल में निकाले गए कर्मचारियों कोनिष्कासन काल के तन के साथ बहाल करें। ऑफिस खचाखच भरा था। उनमें युवाओं की संख्या ज्यादा थी। जॉर्ज जोर दे रहे थे कि सरकार से बाहर रह कर वे ज्या निष्ठा से देश सेवा कर पाएंगे। अपनी बात के समर्थन में साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन की क्रांतिकारी धारा से निकले, अर्जुन सिंह भदौरिया का इस आशय का पत्र पढ़कर सुनाया। मैं कहने को हुआ कि रेल मंत्री बनकर .. । लेकिन वह, उस समय बहुत बड़ा नेता था और मेरी कोई औकात नहीं थी (अब भी नहीं है)। मैं यह सोचते हुए वहां से फूट लिया कि यह मंत्री जरूर बनेगें लेकिन रेल त्री नहीं। हड़ताल के दौरान बर्खास्त बहुत से कर्मचारी बिना बहाली के दयनीय जीवन जीते हुए, मर चुके होंगे। वे उद्योग जनता पार्टी के जिन चंद मंत्रियों के नाम के बारे ‘खाने-पीने’ की सुगबुआट थी उनमें जॉर्ज का नाम प्रमुखता से लिया जाता था। जनता पार्टी में जनसंघ घटक के सदस्यों की दुहरी सदस्यता (जनता पार्टी और आरयसयस) के मुद्दे पर जनता पार्टी के विघटन और फलस्वरूप मोरारजी देसाई के पतन में जॉर्ज की प्रमुख भूमिका थी। जैसा कि अब इतिहास बन चुका है, इंदिरा गांधी के समर्थन से चरण सिंह प्रधानमंत्री बने और समर्थन वापसी से बिगड़ गए। खैर जैसा बाद में चंद्रशेखर के साथ हुआ चरण सिंह का भूतपूर्व प्रधान मंत्री की खाहिश पूरी हो गयी और 1980 में चुनाव के जरिए इंदिरा गांधी का सत्ता में वापसी का पथ प्रशस्त हुआ।
खैर समाजवादियों ने तो कभी क्रांति का दावा नहीं किया लेकिन आज के इस दुर्दिन के लिए जिसमें इतिहास की गाड़ी एक लंबी अंधेरी सुरंग में फंसी है, क्राति का माला जपने वाले कम्युनिस्टों के अकर्मों, अंतर्दृष्टि की कमी तथा वैचरिक विभ्रम की भूमिका सर्वाधिक है। 1964 में संसदीय संसोधनवाद को मुद्दा बनाकर पार्टी में बंटवारा करने वाले (सीपीयम), अलग पार्टी की स्थापना के तीन सालों में ही सीपीआई से भी बड़ी संशोधनवादी पार्टी बन गयी। गौरतलब है कि सीपीयम के ज्योति बसु 1967 में संविद सरकार में थे और नक्सलबाड़ी के किसानों के सशस्त्र प्रतिरोध से निकली तीसरी धारा को कुचलने में यह सरकार पीछे नहीं थी, खैर संविद सरकार के पतन के बाद सत्ता की बागडोर संभालने वाले सिद्धांतशंकर राय ने तो पुलिस प्रमुख नियोगी के साथ नक्सलवाद के नाम पर जहीन युवा-युवतियों की हत्याओं का नया रिकॉर्ड स्थापित किया। महाश्वेता देवी का उपन्यास हजार चौरासी की मां साहित्यिक फंतासी नहीं हकीकत है। नक्सलवाद नाम से जाने वाली इस धारा में जनसंगठनों और जनांदोलनों पर जोर नहीं था। इस धारा के समर्थक छात्र अलग अलग प्रांतों में अलग अलग नामों से संगठित थे। एआईयसयफ और यसयफआई के चरित्र क्रमशः सीपीआई और सीपीयम के चरित्र के अनुरूप थे तथा उप्र की छात्र रानीति में कुल मिलाकर, हासिए की ताकतें थीं। भाषण के हर वाक्य में बम-गोलों की बात करने वाले रणवीर सिंह चौहान 1973-74 में भारी बहुमत से महासचिव पद का चुनाव जीता लेकिन आपातकाल की घोषणा होते ही सीपीआई में शामिल हो गया। यह बातें और अपनी राजनीति की चर्चा, किशोर यादों के अगले किसी एपीसोड में।


26.011. 2017    

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