शराफत की चुप्पी
ईश मिश्र
पैदा हो ही गए तो जीते रहो ऐसे ही
धरती पर एक अदद की तरह
परिवार का खैरखाह बनकर
घर के बाहर के हाहाकार से बेखबर
सुबह सुबह विस्तर पर
बीबी के हाथों की स्वादिष्ट चाय पिओ
फिलिप मॉरिस इंटरनेसनल के धुएं के कश के साथ
उतारकर कल की बॉस की पार्टी की खुमार
बैठकर ट्वायलेट के पॉट पर खुश हो जाओ
लेकर पॉयनियर अखबार
पढ़कर खबर आईयस की में दानवी उत्पातों की
कि कितने सही हैं मुसलमानों के बारे में अपने विचार
मुसलमान होते ही हैं कसाई
देखो बख्सते भी नहीं अपना ही भाई
उतने ही खुश जितने हुए थे 2002 में
सोचते हुए कि कहीं के मुसलमानों के कुकृत्यों की
कहीं-न-कहीं के मुसलमानों को भरपाई
इसी लिए चुप रहो बोलो मत
बोलने से पड़ जाएगी बोलने की बुरी लत
निलते समय घर से
पहन लो एक विनम्र मुस्कान की नकाब
छिप जाए जिससे तुम्हारी परसंतापी मौन हंसी
रोजमर्रा के निरर्थक शब्द बुबुदाते हुए
रोबो की तरह लोगों से मिलाते हुए हाथ
तुम्हारे सब कुछ है
बॉस की कृपा-पात्रता
सहकर्मियों पर मौन रौब गांठने का अंदाज
बहुत बड़ी न सही ठीक-ठाक नौकरी
और बीयमडब्ल्यू न सही
है तुम्हारे पास भी होंडा सिटी की कार
और समाज थोड़ा-बहुत सम्मान-सत्कार
नहीं है निजी बार नहीं सही
अपनी बॉलकानी में लगा ही सकते हो
एक-दो छुटभइयों का दरबार
लगाते हुए रॉयल स्टैग के पैग दो-चार
रोज नहीं तो महीने में दो बार ही सही
मिल ही जाता है बॉस की पार्टी में
स्कॉच के आचमन आनंद अपार
क्या जरूरत है बोलने की
चुप ही रहो जीते हुए ऐसी ही जैसे भी
चुप ही रहो कुछ न कहो
वैसे भी कहावत है एक अंग्रेजी भाषा में
बोलना है अगर चांदी
सोना है मगर मौन
इसीलिए ऐ शरीफ आदमी
बोलने से
आसान है चुप रहना
चुपचाप जीते
रहो ऐसे ही जैसे भी
वैसे भी देख
चुके हो
बोलने वालों
के अंजाम
बोलकर ही
करा लिया गौरी लंकेश ने
अपना
काम-तमाम
इसीलिए
जरूरत क्या है बोलने की
क्या नहीं
है तुम्हारे पास
यचआईजी
फ्लैट
भरापूरा
परिवार
ठीक ठाक
नौकरी और होंडा कार
जीते रहो
चुप-चाप इसी तरह
अंतिम सांस
तक।
(ईमि:
23.11.2017)
[बहुत दिनों बाद कलम की लंबी आवारगी]
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