बचपन की यादों के झरोखे से 2
ईश मिश्र
बचपन की बहुत बातें तो नहीं याद रहतीं कुछ रह जाती हैं। वैसे भी राजनैतिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े एक दूर दराज के गांव के बच्चों की दुनिया ही कितनी बड़ी होती थी? मेरे गांव के पश्चिम छोटी नदी (मझुई) बड़े बीहड़ों के पार एक गांव है मौलानीपुर। वहां बड़े बड़े कंकड़ीले टीले और छोटी-छोटी घाटियों से होती बहुत बचपन की यात्राओं में सोचता था पहाड़ कुछ इसी का व्यापक रूप होता होगा। दर्शनाथ गांव के ‘मेले’ के साथ विंध्याचल की पहली यात्रा तक यही धारणा बनी रही। तथ्यात्मक आत्मकथा के कई खतरे होते हैं। पहला तो अपनी बेवकूफियों और गलतियों, तकनीकी अवैधानिकताओं के सार्वजनिक होने का दूसरा जाने-अनजाने किसी की भावनाओं को आहत करने का। लेकिन मुक्तिबोध ने कहा है कि ‘उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे......’। पहला खतरा मेरे लिए तो कोई खतरा नहीं है, मेरे परिजन नाराज हो सकते हैं। मैं अपने बच्चों को सिखाने की कोशिस करता हूं कि जब भी लोकप्रियता और सही में चुनाव करना हो तो सही चुनो, अलोकप्रियता अस्थाई होती है; आसान और सही में सही चुनो, कठिनाइयां सरल हो जाएंगी या अप्रभावी। जिस वर्णन से किसी की छवि का सवाल होगा वहां नाम नहीं लिखूंगा क्योंकि बच्चे न नैतिक होते हैं न अनैतिक, वे आत्म-संरक्षण की स्वाभाविक प्रवृत्ति से ओत-प्रोत मासूम जीव होते हैं, नैतिक-अनैतिक वे समाज में, समाजीकरण के दौरान बनते हैं। बाकी यादें और मेरी उस समय की सामाजिक रिश्तों की अपनी समझ की यादों की चर्चा बाद में, अभी स्कूल प्रकरण पूरा कर लूं।
पांचवीं की परीक्षा की कहानी बाद में पहले स्कूल का थोड़ा वर्णन। जैसाकि पहले भाग में बताया गया है कि शिक्षकों का संबोधन जाति आधारित था। ब्राह्मण शिक्षक – पंडित जी; क्षत्रिय – बाबू साहब अन्य जातियां -- मुंशी जी और मुसलमान – मौलवी साहब। इन संबोधनों से मुंशी जी और मौलवी साहब को भी कोई परेशानी नहीं थी। मार्क्स ने कहा है कि शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, पूंजीवाद माल का ही नहीं विचारों का भी उत्पादन करता है और युगचेतना या विचारधारा का निर्माण करता है। विचारधारा शोषक और शोषित दोनों को प्रभावित करती है। सिर्फ पिता जी ही मां की आज्ञाकारिता को अपना अधिकार नहीं मानते थे बल्कि मां भी उसे कर्तव्य समझती थी। मैंने मानवीय संवेदन और सम्मान की भावनाएं, लगता है, दादी और मां से सीखा है और भूत-प्रेत से न डरना मां से। भूत-प्रेत की कहानियां बाद में कभी सुनाऊंगा। न सिर्फ सवर्ण को मुसलमान मित्र के लिए अलग बर्तन की व्यवस्था सही लगती थी, मुसलमान मित्र को भी कोई असहजता नहीं होती थी। वर्ण-व्यवस्था में दरार पड़ना शुरू हुआ था लेकिन दरार बहुत पतली थी। चमार-यादव-धोबी-लोहार-धुनिया-.. लड़के भी स्कूल जाने लगे एकाध लड़कियां भी, हालाकि भौतिक परिस्थियों के चलते बहुत आगे नहीं जा पाते थे। मुंशी (राम बरन) जी जब तक प्रधानाध्यापक थे तब तक दलित बच्चों का विशेष उत्पीड़न नहीं था। मुंशी जी का व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली था, मुझे उन्होने पढ़ाया नहीं, लेकिन तीनों गुरुओं में मैं उनकी सबसे अधिक इज्जत करता था, गुरु-अवमानना न माना जाय तो बाबू साहब का सबसे कम। मैं जब तक ‘सीनियर’ (4) क्लास में पहुंचा (1963) वे रिटायर हो गए। राम बरन मुंशी जी रिटायर हुए तो एक और मुंशी जी (रमझू राम) आ गए। उनकी जो छवि है दिमाग में – चकाचक धुला, प्रेस किया धोती-कुर्ता, करीने से कंघी किए बाल हल्की मूंछों वाले एक स्मार्ट युवक की। उनकी सहजता और बच्चों के साथ मित्रता मुझे बहुत अच्छी लगती थी। मुझे तो पढ़ाया नहीं, लेकिन मैं कभी-कभी बात कर लेता था। बाबू साहब का व्यवहार परोक्ष नहीं, प्रत्यक्षतः अवमानना का था। मुझे अच्छा नहीं लगता था, लेकिन प्रतिकार की न समझ थी न साहस। छुटके दलित बच्चों को मारते हुए भगाते थे कि चमार-सियार सब पढ़ लेंगे तो हल कौन जोतेगा? अगर कोई आ गया तो कहते थे, ‘भागो कहां तक भागोगे?’ अब कोई 5-6 साल के दलित बच्चे की बात मानेगा कि ‘सम्मानित’ बाबू साहब की? उनकी स्कूल से भागते बच्चों को पकड़-पकड़ पढ़ाने वाले शिक्षक की छवि बन गयी। अच्छा तो नहीं लगता था लेकिन मन को उद्वेलित नहीं करता था। मैं ब्राह्मण बालक था। भूमिका पहले ही लंबी हो गयी, लेकिन रामबरन मुंशी जी के बारे में थोड़ी सी बात की लालच छोड़ नहीं पा रहा हूं। आठवीं के बाद जब शहर चला गया तो घर आते-जाते मुंशी जी पवई चौराहे पर चाय की अड्डबाजी करते दिख जाते थे, सामने स्टूल पर बीड़ी का बंडल और माचिश होती। पहली बार जब पवई चौराहे पर मुंशी जी से मुलाकात हुई (1967-68), तत्कालिक प्रतिक्रिया में मैंने लपक कर उनका चरण स्पर्श कर लिया। मुझे सब ‘पंडितजी’ (पिताजी) के बेटे के रूप में जानते थे। आस-पास के लोग भौंचक्के होकर देखने लगे जैसे कोई अजूबा हो गया हो! मुंशीजी ने उठाकर गले लगाते हुए कहा, “क्यों नर्क में भेजना चाहते हो?” मुंशी जी पतुरिया जाति के थे। गुरर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु .... वाले समाज में गुरु का चरणस्पर्श चौराहे की खबर बन गयी। 1968-69 तक मां-बाप; बाबा-अइया...... को छोड़कर, जिनके चरणस्पर्श की बचपन से आदत थी, गुरूबाबा समेत सभी का चरणस्पर्श बंद कर चुका था लेकिन चौराहे पर जब भी मुंशी जी दिखते मैं उनका चरण स्पर्श जरूर करता। गुरू को ब्रह्मा मानने वाले को गुरू को मेरा सम्मान नागवार गुजरता, गुजरा करे। दिल्ली आने के बाद मुंशीजी से मुलाकातें लगभग न के बराबर हो गयीं। 2000 के आसपास की बात होगी, सुम्हाडीह चौराहे पर मुंशीजी से मुलाकात हो गयी, बिल्कुल फिट। मैं मन-ही-मन उम्र का अंदाज लगाने लगा। सुम्हाडीह से मेरे गांव, सुलेमापुर होते हुए सड़क बन जाने के बाद सुम्हाडीह और मेरे गांव में भी चाय के चौराहे बन गए। साइकिल से जब हम अपने गांव के चौराहे पर पहुंचे, मुंशी जी के साथ चाय-चर्चा के बाद बिदा लेते हुए स्वास्थ्य का राज पूछने पर बोले कि बीड़ी पीना छोड़ दिया, मांस-मछली अच्छा नहीं लगता और लोगों के साथ मस्ती से बतिआते हैं। मुंशीजी प्रणाम।
लंबी किंतु संबद्ध भूमिका के लिए मॉफी। दरअसल जब मन सेंटिया कर नस्टेल्जियाता है तो कलम अपनी मनमानी पर उतर आता है। बाबूसाहब ने भी मेरी प्रोन्नति को बहस मुवावसे के बाद मान लिया। लंबे-चौड़े सहपाठी अवमानना की नजर से देखते थे, देखते रहें। मुझे ताज्जुब होता था कि गणित (अंक गणित) जैसा आसान विषय बच्चों को मुश्किल क्यों लगता था? यह मुझे बहुत बाद में समझ आई जब मैं गणित मेरी आजीविका का साधन बना, लेकिन उस बारे में अभी नहीं फंसूंगा। कई काम हैं, इसलिए इस भाग को प्राइमरी पास करके खत्म करता हूं।
भाषा (हिंदी) और गणित दो विषय पढ़ाए जाते थे, बाकी शिल्प वगैरह का ‘प्रैक्टिल’ होता था, जिसमें बढ़ई, लोहार, कोंहार से बनवाकर कृषि-उपकरणों और उत्पादों के नमूने प्रदर्शित किए जाते थे। सच्चाई परीक्षार्थी, शिक्षक परीक्षक सब जानते थे। परीक्षा के पहले मुझे चेचक हो गया (माता माई निकल आईं)। परीक्षा की तिथि के एक दिन पहले तक मैं ठीक नहीं हुआ लेकिन परीक्षा देने पर अड़ा रहा। सबलोग समझाते रहे कि अभी मेरी उम्र के लड़के 2-3 साल पीछे हैं, वगैरह-वगैरह। अब लगता है मान जाना चाहिए था, लेकिन नहीं माना। माता माई निकली हों तो कमरे से बाहर निकलने के लिए जल छुआने की प्रथा थी। हारकर अइया (दादी) ने जल छुआया और मैं बरामदे की कोठरी में धुला-प्रेस किया कपड़ा तकिए के एक तरफ रख दिया और दूसरी तरफ सोने के पहले जो पहना था। परीक्षा केंद्र 2-3 किमी दूर मुत्कल्लीपुर में था। भइया आठवीं की परीक्षा दे चुके थे और साइकिल चलाते थे। सुबह अंधेरे में ही हम उनके साथ चल पड़े। उजाला होने पर देखा कि मैंने तकिए की दूसरी तरफ (गंदे) के कपड़े पहन लिया था, लेकिन अब क्या? लिखित परीक्षा के बाद मेरा चेचकग्रस्त होना पकड़ लिया गया और मुझे दूर अलग बैठा दिया गया। लेकिन मेरा काम तो हो ही गया था। वापस आकर चेचक के दाने बड़े-बड़े फोड़ों और फफोले बन गए। कई दिन फिर अलग-थलग कमरे में विस्तर पर रहा। ठीक होने पर शरीर में जगह-जगह दाग पड़ गए, कई अभी बचे हैं। 2-3 दिन में हीव परीक्षाफल आ गया, पता चला कि लिखित परीक्षा में में सबसे अधिक अंक थे। मैं खुशी के इजहार में घर से बाहर नहीं निकल सकता था, फिर भी बहुत खुश था। जुलाई, 1964 में मैं जब पिताजी के साथ टीसी लेने गया तो बाबू साहब ने मेरी जन्मतिथि 3 फरवरी 1954 लिख दिया, जो कि जन्म कुंडली से 26 जून 1955 है। मेरे पिताजी फैल गए कि सबकी उम्र 2-3 साल कम लिखते थे और मेरी सवा साल ज्यादा? बाबूसाहब ने समझाया कि 1969 में हाईस्कूल की परीक्षा के लिए 1 मार्च को कम-से-कम उम्र 15 साल होनी चाहिए, इसी लिए उन्होंने 1954 फरवरी की कोई तारीख लिख दिया। प्राइमरी की यादें इस बात से खत्म करता हूं कि 1964 में अपने गांव से छठी क्लास में लग्गू पुर जाने वाला अकेला था। एक प्रकाश दिल्ली अपने ताऊ के पास आ गया और रमाकर उपाध्याय अपने बड़े भाई प्रभाकर जी के पास कलकत्ता चले गये। तीन लोग आठवीं में थे और सातवीं में कोई नहीं। इनकी चर्चा मिडिल स्कूल की यादों के साथ।
जारी...
19.11.2017
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