बचपन की झरोखे से 3
ईश मिश्र
पांच साल से कम उम्र की बहुत कम बातें याद रहती हैं,
वह भी क्रम में नहीं। हिंदू समुदाय में विषम संख्या महत्वपूर्ण मानी जाती है।
क्यों? पता नहीं। बजार में नगद उपहार के लिए एक रुपया चिपका हुआ लिफाफा मिलता है।
शुभ काम विषम सालों में होता है, जैसे मुंडन जन्म के पहले, तीसरे और पांचवे साल
में होता है। बाल विवाह की प्रथा थी तो लड़की की विदाई शादी की बारात की विदाई के
साथ नहीं होती थी। साल भीतर, तीसरे, पांचवें, सातवें.. साल फिर एक छोटी बारात जाती
थी लड़की की विदाई कराने, जिसे गवन कहा जाता है। अब जब कि बाल विवाह, काफी हद तक
खत्म हो चुका है तब भी गवन की प्रथा बरकरार है। शादी के 1-2 दिनों बाद गवन आता है।
यह भूमिका इसलिए कि बाबा (दादाजी) की पंचांग गणना के अनुसार, मेरी मुंडन की सही
तारीख पांचवें साल में थी। पांच साल लंबे बाल थे। मेरा छोटा भाई मुझसे डेढ़-दो साल
ही छोटा था तो मेरा शुरुआती बचपन अपनी अइया (दादीजी) के साथ बीता है। किसान घरों
में महिलाओं के पास ज्यादा काम होता है। उन दिनों आंटे की पिसाई (जांते पर), धान
की कुटाई (ओखला में), दाल दड़ना (चक्की पर) भी घर में ही होता था। मां के आंटा की
पिसाई के अनुभव की एक घटना इसलिए याद है कि लोग गाहे-बगाहे याद दिलाते रहते थे।
मां (माई) जांते पर आंटा पीस रही थी। मैं उसकी पीठ पर झूला झूल रहा था। जांते के
हैंडिल का सिरा नुकीला होता है और मेरे माथे मे चुभ
गया और नाक के ऊपर माथे पर ऊर्ध्वाधार तिलक का निशान बन गया जो आज तक है। यह इसलिए
याद है कि घर वाले बार बार याद दिलाते रहते थे।
एक और घटना जिसमें
मौत छूकर निकल गयी। उस दृश्य की याद आज भी दिमाग में गोदार की किसी फिल्म को किसी
दृश्य की तरह आंखों के सामने घूमने लगती है। हमारा गांव एक छोटी सी नदी, मझुई के किनारे
बसा है। बरसाती नदी है, कहा जाता है कि काफी दूर पश्चिम में कोई मझौरा ताल है वहीं
से निकली है। लेकिन बारहों महीने बहता पानी रहता था। हम बच्चे जहां नहाते और पानी
के खेल खेलते वहां नदी काफी गहरी थी। अब तो गर्मियों में सूख जाती है, कहीं-कहीं
ठहरा पानी रह जाता है। कहावत है अधजल गगरी छलकत जाए, छोटी नदियों में बाढ़ भीषण
होती है। किस सन की बात है कह नहीं सकता लेकिन 1960 से पहले की बात होगी क्योंकि
1960 में मैं उम्र के पांचवें साल में था और पांचवे साल में मेरी मुंडन हो गयी थी।
हमारा और हमारे सबसे नजदीकी पट्टीदार राम मिलन भाई का घर काफी ऊंची मिट्टी की पटाई
करके बने थे इसलिए वहां तक पानी नहीं आता
था लेकिन कई घरों दुआर (सहन) तक आ जाता था। बचपन की यादों के पहले भाग में
अपने एक समौरी (हम उम्र) दामोदर का जिक्र किया है, पानी उनके दुआर के नीचे तक था।
मैं और मुझसे 5-6 महीने छोटी मेरी फुफेरी बहन, विमला, उनके दुआर पर बाढ़ के पानी
से खेल रहे थे कि वह उसमें फिसल गयी। मैंने उसकी चोटी पकड़कर खींचना चाहा मैं भी
उसीके साथ पानी में डूबने लगा। एक और लड़की ने मेरी चोटी पकड़ ली। अब याद नहीं भूल
गया कौन थी? पानी बहुत गहरा नहीं था लेकिन बहाव वाला था और हमारे डूबने के लिए
काफी। हम तीनों डूबने लगे। दूसरी तरफ बाग से कन्हैया भाई (स्व. कन्हैया मिश्र) आ
रहे थे, उन्होंने दौड़ कर हम तीनों को बाहर निकाला। हमने उनसे घर न बताने की बिनती
की लेकिन वे माने नहीं और गांव में हम चर्चा का विषय बन गए। मेरी फुफेरी बहन से मेरी बचपन से ही
दोस्ती थी लेकिन अब संयोग से आखिरी मुलाकात को 41 साल हो गए। 1976 में आपात काल
में लगता था कि आपातकाल, मुसोलनी के फासिस्ट शासन की तरह बीसों साल रह सकता है।
भूमिगत अस्तित्व की संभावनाएं तलाशने दिल्ली आने का निर्णय लेने के बाद कई
रिश्तेदारों से मिल कर आने की सोचा। बुआ के घर एदिलपुर गया और वहां से 3-4 किमी
दूर अकबेलपुर उसकी ससुराल है, सो उससे भी मिलने चला गया, उसकी बेटी एक साल की थी।
कई बार, कई दिन तक
मां और दादी को मेरे बाल धोने और संवारने का मौका नहीं मिलता था तो बाल में साधुओं
की तरह लटें पड़ जाती थीं। लोग कहते थे इमली हिला दो मैं सिर हिलाकर इमली हिलाता
था। मां और दादी अच्छा बच्चा बनने को कहतीं। मुझे जो अच्छा लगता था वही करता। बाबा
ठाकुरबाबा को चंदन लगाने के बाद अपने से पहले मेरे माथे पर चंदन लगाते। जात-पांत
से परे सभी बड़ों को भइया, काका, दादा या बाबा बुलाता था। हमारे दो हलावाहे थे,
खेलावन काका और लिलई काका और खेलावन के बेटे बंशू भइया चरवाहे थे तथा घर पर ही
रहते थे। उन्होंने मुझे बहुत गोद खेलाया है। वे घर के सदस्य से थे लेकिन खाने के लिए
उनका अलग बर्तन था जिसे वे धोकर बाहर चारे की मशीन के मड़हा में रख देते थे।
उन्हें भी यह सामान्य लगता था क्योंकि वर्चस्वशाली वर्ग के विचार ही अधीन वर्ग के
विचार होते हैं। शोषण में भावनात्मक तड़का। जैसे आजकल लोग ‘काम वाली’ को घर का
सदस्य कहते हैं लेकिन लाखों की आमदनी के बावजूद उसके वेतन में 100 रूपए बढ़ाने में
नानी मरती है। मेरी छवि ‘अच्छे बच्चे’ की थी, और मैं और अच्छा बनने की कोशिस करता।
गांव की कुछ महिलाएं मुझे साधू बुलातीं थीं।
एक बात तो इसलिए याद
है कि साथ के बच्चे और कुछ बड़े भी कई सालों तक चिढ़ाते थे। बड़े बाल होने के नाते
कई अपरिचित घर आते या रास्ते में मुझे ‘बेटी’ पुकार देते। बुरा तो बहुत लगता लेकिन
‘अच्छे बच्चे’ की छवि के दबाव में बर्दास्त कर लेता। लेकिन बर्दास्त की भी एक सीमा
होती है। एक बार गांव के बाहर की बाग में हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहा था। साइकिल
साइकिल खड़ी कर एक आगंतुक ने मेरे पिताजी का नाम लेकर पूछा, “हे बिटिया, सालिकराम
पंडित जी का घर किधर पड़ेगा”? उनके सवाल का जवाब देने से पहले ही मेरी सहनशीलता का
बांध टूट गया। मैंने गुस्से में प्रमाण के साथ उन्हें बताया कि मैं बिटिया नहीं
बेटवा हूं। वे हंसने लगे और गोद में उठा लिए और फिर उतर कर मैं उन्हें लेकर घर गया।
इस याद का जिक्र
इसलिए कर रहा हूं कि 3-4 (5 से कम) उम्र के बच्चे को कैसे मालुम कि बेटी कहा जाना
अपमान की बात है और वह लाज-शरम छोड़कर, अच्छे बच्चे की परवाह किए बिना अपना बेटापन
साबित करता है? बेटियों को तो आज भी लोग बेटा कह कर शाबासी देते हैं, वे भी इसे
शाबासी ही लेती हैं। हम तमाम मूल्य और मान्यताएं अपने समाजीकरण के दौरान बिना किसी
सचेत प्रयास के अंतिम सत्य के रूप में ग्रहण कर लेते हैं और वह सोच हम अंतिम सत्य
की तरह हमारे मन में आत्मसात हो जाती है, जिस पर हम सवाल नहीं करते और जो हमारे
‘संस्कार’ का हिस्सा बन जाती है। इन अनायास मिले विरासती मूल्यों की जकडन, जीवन को
जड़ता में जकड़ देती हैं। विरासती जड़ता को तोड़कर विवेकसम्मत मूल्यों की रचना के
लिए संस्कारों से विद्रोह का साहस करना पड़ता है। विद्रोह ऋजन है।
पिछले दिनों फेसबुत पर तुकबंदी में एक कमेंट लिखा
गया था:
इसीलिए मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां
जो संस्कारों की माला जपते हुए नहीं
तोड़ते हुए आगे बढ़ती है
पाजेबों को तोड़कर झुनझुना बना लेती है
और आंचल को को फाड़कर परचम
मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां
जो मर्दवाद को देती हैं सांस्कृतिक
संत्रास
वह सब कह और कर के
जो उन्हें नहीं कहना-करना चाहिए
जरूरत है इस संत्रास की निरंतरता की
मटियामेट करने के लिए
मर्दवाद का वैचारिक दुर्ग
(ईमि: 01.08.2017
उपरोक्त घटना की चर्चा मैं अपने विद्यार्थियों
को विचारधारा पढ़ाते समय कभी-कभी करता हूं। किसी
लड़की को बेटा कह कर शाबासी देता हूं औप पूछता हूं कि अच्छा लगा, उसके हां कहने पर
किसी लड़के को बेटी कहता हूं तो पूरी क्लास हंस पड़ती है। मर्दवाद (जेंडर) न तो
जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति है न ही कोई साश्वत विचार जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक चला आया
है। मर्दवाद विचार नहीं विचारधारा है जो हम रोजमर्रा की जिंदगी की गतिविधियों तथा
विमर्श से निर्मित, पोषित और पुनर्निमित करते हैं। विचारधारा एक मिथ्या चेतना है
जो एक खास संरचना और उसके मूल्यों को प्रकृतिदत्त; स्वाभाविक; परमावश्यक; और अंत
में अपरिहार्य के रूप में, शासक वर्गों के विभिन्न वैचारिक उपकरणों रूप में
प्रतिस्थापित की जाती है। टीना (देयर इज़ नो अल्टरनेटिव) सिंड्रोम। विकल्पहीनता
मुर्दा कौमों की निशानी है, ज़िंदा कौमें कभी विकल्पहीन नहीं होतीं। विचारधारा न
सिर्फ उत्पीड़क का हथियार है बल्कि पीड़ित का भी सत्य है, पीड़त जब सत्य का रहस्य
तोड़ता है तो विद्रोह करता है। मैं लड़कियों और दलितों को कहता हूं कि वे
भाग्यशाली हैं कि हमसे 1-2 पीढ़ी बाद पैदा हुए, लेकिन जो (जितनी भी) आजादी और
अधिकार तुम्हें सुलभ हैं वे पिछली पीढ़ियों के निरंतर संघर्ष का नतीजा है तथा
विरासत के आगे बढ़ाना उनका फर्ज। खैरात में कुछ भी नहीं मिलता, हक़ के एक एक इंच
के लिए लड़ना पड़ता है।
सेंटियाकर
नस्टल्जियाने में कलम भी मनमाना हो जाता है। शुरुआती बचपन से कूदकर बुढ़ापे के
क्लासरूम में पहुंच गया। और कुछ खास उल्लेखनीय यादें नहीं हैं, सिवाय इसके कि जब
भी अपने से बड़े किसी लड़की-लड़के को कोई ऐसा काम करते (तैरते, पेड़ पर चढ़ते,
साइकिल चलाते... ) देखता तो तो सोचता ये कर ले रहे हैं तो मैं भी कर लूंगा। 5-6
साल तक पहुंचते-पहुंचते मेरा छोटा भाई मुझसे लंबा-चौड़ा हो गया। यह बात इसलिए याद
है कि उसके छोटे हो गए। हां, ब्राह्म-मुहूर्त में जगने की भी आदत पुरानी है।
हल्का-हल्का याद हैः। सुबह-सुबह बाबा की रजाई में घुस जाता और उनके साथ कई बार
गीता के श्लोक दुहराता अक्सर राम चरितमानस के दोहे-चौपाइयां। गीता के दो श्लोक समझ
में भी आ गए थे और कंठष्थ हो गए। “त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः.....” और “यदा-यदा ही
धर्मस्य ....”। मानस के तो कई दोहे-चौपाइयां कंठष्थ थे। बीच-बीच में ‘जयराम
श्रीराम जय जय राम’, कई बार दोहराते, जिसे मैं नहीं दोराता था। लगता था (रहा होगा)
एक ही बात बार बार दोहराने से क्या फायदा? इतने छोटे बच्चे को नहीं मालुम होता कि
कोई बात दुहराते-दुहराते, आदत बन जेहन में घुस जाती है। जिसे निकालने के लिए कठिन
आत्म-संघर्ष करना पड़ता है, ज्यादातर लोग यह झंझट नहीं उठाते और यथास्थिति का आनंद
लेते हैं।
28.11.2017
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