साथी प्रांशु, इस रोचक विमर्श में सक्रिय भाग नहीं ले पा रहा हूं। 1952 के चुनाव में सीपी ने भाग नहीं लिया था। 2 लाइनो का अंतर्विरोध तेलंगाना क्रांति के दमन के बाद नेतृत्व के समर्पण से शुरू हो गया था। क्रांतिकारी पार्टियां चुनाव भी लड़ी हैं, संविधान सभा में बोलसेविकों ने भी चुनाव लड़ा था। लेकिन मामला साधन और साध्य का है। संसदीय पार्टियों के लिए चुनाव साधन से साध्य बन गया है। 1957 के चुनाव में भाग लेने का तर्क यह था कि चुनाव को क्रांतिकारी विचारों के प्रसार के मंच के रूप में इस्तेमाल कर जनांदोलनों को मजबूत किया जाएगा। हुआ उल्टा जनांदोलनों को धीरे-धीरे तिलांजलि दे दी गयी और साधन साध्य बन गई। आज की जरूरत सांस्कृतिक और राजनैतिक जनांदोलनों के जरिए सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की है, ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद विशाल स्पीडब्रेकर्स हैं।
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