Sunday, November 12, 2017

क़ब्रो की ख़ामोशी

क़ब्रो की ख़ामोशी

ज़िंदगी डराती है मुझे,मौत से डर नहीं लगता 

 ज़रा भी डर नहीं लगता, मरे हुए लोगो से मुझे
 उनकी  भीड़ का हिस्सा बनना भी, मंज़ूर है मुझे

हर दूसरी रात  तफ़रीह करता हूं मुर्दों के साथ
ताश खेलता हूं , नाचता-गाता हूं उनके साथ

बातें करता हूं उनसे ज़िंदगी के बारे में
जिसका उनके लिए नहीं है कोई मतलब

खुलते ही आंख अभिशप्त महसूस करता हूं।
ज़िंदगी डराती मुझे है ,मौत से डर नहीं लगता 

ज़िंदगी की ख़ामोशी से सहम जाता हूं
 जब देखता हूं गलियों में चलती-फिरती  लाशें

अपने ही दिमाग के कैदखाने में बंद
शिक्षकों की ज़ुबानों पर लगे ताले
ज्ञान नहीं निकलता उनसे बाहर
एहसास जिसका एहसास ही नहीं है

ज़िंदा लोगों पर देखता हूं ,मौत के साय़े
और सुनता हूं मुर्दों की आहें

ज़िंदगी डराती है मुझे,मौत से डर नही लगता


मैं डर  जाता हूं
मुर्दों के सांस लेने के अभिनय के बारे में सोचकर
लेकिन मौत से डर नहीं लगता

मुझे डर लगता है, क़ब्रो की  ख़ामोशी से
जिंदगी डराती है मुझे ,ये क़ब्रगाह नही डराते

जब नहीं उठते क़ब्र से मुर्दे
तो खुद से कहता हूं मै

मदहोश हो जाना ही बेहतर है
इन क़ब्रो की  ख़ामोशी में। 

के.पी. शशि

(अनुवाद: ईश मिश्र)

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