बचपन की
यादों के झरोखे से 4
ईश
मिश्र
थोड़ा बड़े होकर
अक्षरज्ञान के बाद पूरा रामचरित मानस रोचक कहानी की तरह पढ़ गया। जब दोहा-चौपाई
समझ में आ जाती थी तो बिना टीका के अन्यथा साथ में दी गयी टीका के साथ। मुझे कहानी
में दो ही लोचे लगे थे। सूर्पनखा के नाक-कीन कटवाना और सीता की अग्निपरीक्षा के बाद
भी बेघर कर देना। घर में इसके अलावा हिंदी की किताबें ही नहीं थीं। संस्कृत आती ही
नहीं थी। बचपन में देवतन के घर (कमरे) में संस्कृत और फारसी की पांडुलिपियों से
भरा काठ का एक बहुत बड़ा बक्सा था। उसमें तरह तरह के शंख भी थे। शंख तो पुराहिती
करने वाले लोग ले गए और पांडुलिपियां मजदूरों के नाश्ते के नमक-मिर्च की पुड़िया
बनाने में या ऐसे ही कामों में खर्च कर दिया। मेरे परदादा के बारे में कहा जाता था
कि संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। मेरे पिताजी के जन्म के पहले ही उनका निधन हो
चुका था। बाबा कितना और कहां पढ़े थे पता नहीं, कभी पूछा नहीं।
पंचांग और संस्कृत का ज्ञान लगता है उन्हें विरासत में मिला था। गांव में एक
बुजुर्ग, लल्लू (लालबहादुर सिंह) बाबा ही थे जो परदादा की
कहानियां बताते थे। मैं जब भी छुट्टियों में घर जाता उनसे मिलने जरूर जाता।
ग्रामीण संवेदनशीलता बहुत क्रूर होती है। एक छुट्टी में गया और मालुम नहीं था कि
लल्लू बाबा का निधन हो गया था। याद नहीं कौन लड़के थे, मुझे इस गमगीन खबर को सहजता से बताने की बजाय
मेरा परिहास करते हुए आपस में एक भद्दी परसंतापी हंसी शेयर करते हुए, एक ने दूसरे से परिहास के अंदाज में पूछा ‘लल्लू बाबा से मिलय आय हयन’। आजतक याद है उनका सूचना का तरीका बुरा लगा था
और चुपचाप उस टोले से निकल,
ऐसे ही नदी की तरफ चला गया, नदी पार किया और परकौलिया बाजार चला गया, तिलकधारी चाचा मिल गए और लंबी चाय की अड्डेबाजी
के बाद वापस रास्ते लालू भाई मिल गए। कहीं से आ रहे थे, परकौलिया पहुंचने तक अंधेरा हो गया। खेतों-गांवों
के रास्तों से दूरी का पता नहीं चलता था, लेकिन 5-6 किमी
होगा। लालूभाई भूतों से डरते थे, रास्ते में कई भूतों
के ठीहे थे। मेरा तब तक भगवान का तो नहीं भूत का भय खत्म हो गया था। भूतों से
टकराव की कहानियां आगे कभी मौका मिला तो शेयर करूंगा। लालू भाई ने कहा, “अरे इसनरायन भाई, तोहैं त
भगवान भेजि देहेन...”। रास्ते में नदी के एक दम पहले बैरी बाग है, माना जाता था कि वहां बैरी बाबा नाम के हमारे
किसी पूर्वज की आत्मा का निवास था। कुछ लोगों के बैरी बाबा से सशरीर मुलाकात की भी
कुछ कहानियां प्रचलित थीं। बैरी बाग में बैरीबाबा को मैंने गाली देकर चुनौती दी कि
जो बिगाड़ना हो लें। लालू भाई बोले कि हमारे पूर्वज थे, गाली नहीं देना चाहिये। मैंने कहा, पूर्वज हैं तो चुपचाप शांति से रहें, बच्चों को डराते क्यों हैं?। मुझे भी लगता है अनायास गाली नहीं देना चाहिए
था, लेकिन बच्चा नैतिक अनैतिक नहीं होता, वह तो महज आत्मप्रेम और आत्मसंरक्षण की स्वाभाविक
प्रवत्तियों वाला मासूम जीव होता है, गुण-दुर्गुण तो वह
समाज से ग्रहण करता है। नदी तट तक पहुंचते पहुंचते बाबा की आवाज सुनाई देने लगती
कि 2 दिन के लिया आता है पता नहीं कहां कहां आवारों की तरह घूमता रहता है? युग जमाना खराब है, इतनी
रात हो गई। मेरी आहट पाते ही बाबा चुप हो जाते और चरणस्पर्श करते ही, डांट प्यार में बदल जाती।
सेंटियाकर
नस्टजियाने में बचपन की यादों में फंस कर मौजूदा विषयों और वायदाशुदा कामों से भटक
गया, वह भी ऐसी यादें, जिनकी
कोई समकालिक, सामाजिक प्रासिंगता नहीं है। यादों का यह एपीसोड
मुंडन की यादों के साथ खत्म कर यादों के झरोखे को एक लंबी अवधि के लिए बंद कर, आज से संपूर्णता में रूबरू होऊं। हम सारे भाइयों
की मुंडन 2 बार हुई, भैरो बाबा में दूसरी बार विंध्याचल। भैरो बाबा
आजमगढ़ जिले में महराजगंज से कुछ दूर उत्तर में भैरोबाबा का मंदिर है, मुंडन के बाद फिर कभी नहीं गया लेकिन एक-डेढ़
महीना उद्योग विद्यालय कोयलसा में पढ़ने के दौरान चाय पीने महराजगंज रोज ही जाते
थे। हमारे यहां से लगभग 40-45 किमी होगा। उस समय पैदल, बैलगाड़ी, तांगा-इक्का ही
यातायात के साधन थे। कहीं कहीं के लिए कहीं कहीं से कुछ बसें भी चलती थीं। मेरे
पिताजी समेत कुछ लोगों के पास साइकिल भी थी। जाने की यात्रा की याद नहीं लौटने की
थोड़ी थोड़ी याद है। यह भी याद है कि बाल काटने वाले नाई से मैं बाल वापस लगाने की
जिद कर रहा था, हा हा। पिताजी (बाबू) और अइया के साथ साइकिल पर
गया था। साइकिल पर दादी को पीछे बैठाकर खेतों की पगडंडियों और गांवों के रास्ते की
यात्रा थी। रास्ता किसी गांव के अंदर
पहुंचता तो दादी उतर कर पैदल चलती। अहरौला से पहले किसी गांव में पिताजी के
किसी परिचित की नई गोशाला में अहरा लगाया था। यह इसलिए याद है कि लोग खासकर मेरी
मूर्खता के पक्ष में इस घटना की याद दिलाते हैं। खाना बनाते हुए मां-बेटे अपनी
बातों में लग गया और मैं गांव के भूगोल का मुआयना करने निकल पड़ा (यह आदत आज तक है)।
मैं वहां से पैर से किरमिच के जूते से मिट्टी में निशान लगाते गया था, यह इसलिए याद है कि डांट से बचने का यही तथ्य
साधन बना था। अब लगता है,
बचपन से ही आवारा हूं।
बचपन में मेरे ‘खोने’ की तीन और घटनाएं
हैं। (एक और बार ‘खोया’ था, जो जीवन का मेटामॉर्फिस विंदु बन सकता था, 16 की उम्र मे। लेकिन सौभाग्य से बच गया, सत्य समाज में है, गुफाओं
और कंदराओं में नहीं। इस बारे में कभी वक्त मिला तो किशोर यादों के किसी झरोखे से
शेयर करूंगा।) मुंडन के आसपास की ही बात है। एक बार छुपन-छुपाई खेलते हुए मैंने
पुरौट के नीचे एक आंटा पुवाल में अपने को छुपा लिया। पुवाल की ऊष्मा से नींद आ
गयी। नींद खुली तो देखा दुआरे अफरा-तफरी मची थी। लोग मुझे नदी के किनारे और पास के
बबूल के बन में खोजने लगे। खैर अइया ने प्यार से गोद में ले लिया फिर किसी की
डांटने की हिम्मत नहीं थी,
पिटाई की तो बात ही छोड़ो। अइया हम बच्चों की
सुरक्षा कवच थीं।
बचपन की ‘खोने’ की बाकी दो घटनाओं
में कौन पहले की है कह नहीं सकता, लेकिन जो ज्यादा
सचित्र याद है, उसे बाद की मान लिया जाए। गांव के कुछ पुरुष और
कई स्त्रियों के ‘मेला’ के साथ विंध्याचल
गया था। शायद दूसरी मुंडन के लिए। मेले में घर का और कौन था याद नहीं, लेकिन अइया और माई तथा पड़ोस की एक काकी व एक
भाभी की याद है। माधव सिंह एक स्टेसन है, गंगा से थोड़ी ही दूर। वहां पहली और आखिरी बार वही गयां हूं। शायद बनारस
इलाहाबाद (तब छोटी) लाइन पर है। हम वहां
कैसे पहुंचे होंगे, अंदाज ही लगा सकता हूं। सबसे नजदीकी स्टेसन बिलवाई है
वहां लोकल-पैसेंजर गाढ़िया ही रुकती हैं, फैजाबाद-मुगल सराय लोकल से
बनारस गए होंगे और वहां से माधव सिंह। गंगा पर मिर्जापुर में पुल नहीं था, स्टीमर चलता था। अगले स्टीमर के घाट पर आने में काफी देरी थी। सब लोग
स्टेसन के बाहर डेरा जमाए थे। मैं आदतन आस-पास के भूगोल और समाजशास्त्र का मुआयना
करने निकल पड़ा। बाजार भी लगी थी। जो भी मुझे देखते, लगता है सोचते होंगे मैं, खो गया हूं। एक ने रोक कर पूछ ही लिया कि मैं किसी को खोज रहा था, मैंने कहा नहीं, मेला घूम रहा था। जेब में कुछ पैसे थे, खीरा खरीद लिया। खाते हुए उसी रास्ते स्टेसन पहुंच गया। सीधा रास्ता था, भूलने की गुंजाइश नहीं थी। मेला में हंगामा मचा था, मुझे देख सब चकित थे। उन लोगों ने जहां मैं था वहां छोड़ कर सब जगह खोज
डाला। । मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इसमें ऐसा क्या हो गया कि लोग इतने परेशान हो
गए। मां के पूछने पर मैंने मासूमियत से कहा, खीरा खाने गया था। सब हंस
पड़े। स्टीमर देख कर, आज भी याद है, इतना विशाल और अंदर जाकर ऊपर
नीचे करने लगा। किसी को मुझपर नजर रखने के लिए कहा गया। बाकी विंध्याचल की यादों
में कुछ उल्लेखनीय नहीं है। काली खोह पर पहली बार लंगूर देखा और उसकी एक्रोबेटिक्स
पर मुग्ध हो गया था। पहाड़ पर एक देवी का मंदिर है, शायद अष्ठभुजा देवी का। उनके
बारे में कहा जाता है कि कंस कृष्ण से बदली नंद की बेटी को मारने की कोशिस की तो
वह उसके विनाश की आकाशवाणी करते हुए उसके हाथ से छूटकर हवा में विलीन हो गयीं और
विध्याचल के पहाड़ पर आकर वहीं स्थापित हो गयीं। एक और बात जो याद है, वह है पहाड़ के ऊपर से घाटी में चरते गाय-भैंस-बकरी.. और चरवाहे इतने छोटे
दिख रहे थे कि मुझे लगा था कि ये लोग किसी और लोक के हैं। पता नहीं इन सामान्य
यादों में समय खपाने का कोई सामाजिक उपयोग है या नहीं। 2-4 पैरा की बात को अनावश्क
रूप से फैला दिया। खैर जब फैला ही दिया तो मेले में ‘खोने’ की आखिरी कहानी बता ही दूं।
आजमगढ़ जिले में एक जगह है, दुर्बासा। टंवस और मझुई नदियों के संगम पर। पिछले लेख में खुरासों का जिक्र
किया था, जूनियर हाई स्कूल की परीक्षा सेंटर। वहां से कुछ किमी उत्तर। किंवदंति के
अनुसार, दुर्वाशा ऋषि, जिनका स्पेसलाइजेसन, जैसा कि सविदित है, क्रोध और शाप में था। ई ऋषि-मुनिवे इतने खुराफाती क्यों होते थे? परिभाषा से तो उन्हें ज्ञानी
और दयालु तथा परमार्थी होना चाहिए? और ई भगवान लोग भी अजीबै हैं, कभी भी किसी की तपस्या से खुश होकर ऊलजलूल बरदान दे देते थे। याद नहीं आ रहा है किस
देवता ने दुर्वाशा को शाप से भस्म करने की शक्ति का बरदान दिया था? पता करके लिखूंगा। लेकिन देवता
लोगन के दिमाग नहीं होता क्या? यह
भी याद नहीं कि दुर्वासा ने किस देवता या नामी-गिरामी भक्त को शाप दिया था कि
विष्णु इतने कुपित हो गए कि उसकी हत्या के लिए चक्र सुदर्शन छोड़ दिए। दुर्वासा
भागते-भागते नदी में कूद पड़े, लेकिन
सुदर्शन कहां मानने वाला था, विष्णु
का चक्र था पिछियाते–पिछियाते
नदी मे दुर्वासा के सिर ऊपर उठाने का इंतजार करने लगा और सिर उठाते ही चीर दिया।
मंदिर में उनकी मूर्ति का सिर फटा हुआ है। श्रृष्टि के रक्षक भगवान इतने कमजोर हैं
कि किसी बौड़मियाए साधू को सही रास्ते पर लाने में अक्षम होता है और उसकी हत्या कर
देता है। भगवान-खुदाओं के साथ दंड और भय की ही अवधारणाएं धर्मों के अभिन्न अंग के
रूप में क्यों जुड़े है? विष्णु
अपनी कैबिनेट में ऐसे देवताओं को क्यों रखते हैं जो इतने विनाशक शाप की क्षमता का
वरदान दे देते हैं? दंड
से सिखाने वाला शिक्षक,
शिक्षक की पात्रता खो देता है, उसी
तरह कुछ व्यक्तियों की हत्याकर या सजा देकर धरती से पाप दूर करने वाला भगवान, भगवानत्व की पात्रता खो देता
है। भूमिका बहुत लंबी हो गयी। मैं 3 साल हॉस्टल का वार्डन था। मेरे आने के पहले
हॉस्टल में हर दूसरे-तीसरे पुलिस आती थी। मैं 3 बातें तय करके आया। 1. बच्चों की
नाक की लड़ाई (गुंडागर्दी) का अंत कर दूंगा। 2. जिस दिन पुलिस बुलाने की नौबत आई
अपना सामान पैक करूंगा। हमारे अंडर-ग्रेडुएट, पोस्ट ग्रेजुएट कक्षाओं के बच्चे अपराधी तो हैं नहीं। इतनी युवा
ऊर्जा होती है कि रचनात्मक उत्सर्जन के अभाव में कभी-कभी बाहुबल प्रदर्शन में
प्रष्फुटित हो जाती है। उन्हें रचनात्मक मोड़ देना शिक्षक का काम है, न कि दंडित कर सुधारने का
अशिक्षकीय काम करना। 3. किसी भी विद्यार्थी के रस्टीकेसन का सम्मान नहीं दूंगा।
तीनों काम संपन्न हुए,
जिन बच्चों की जितनी ‘क्लास’ वे
उतना ही प्यार करते हें। हमारे बच्चे प्रतिभा संपन्न हैं, वह शिक्षक क नीयत समझते हैं। इन
दिनों की चर्चा कभी बुढ़ापे की यादों के झरोखे से करूंगा। भूमिका लंबी होने के
इक़बाल के बाद इतना और बढ़ा दिया।
मूल कहानी पर वापस आते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा को दुर्वासा में बहुत बड़ा मेला लगता था (अब भी लगता होगा)। यह रात का मेला होता है (जानकार लोग संशोधन
करें) और भोर में नहान। सैकड़ों लोग भोर 4 बजे से ही नदी में, कांपते हुए डुबकियां लगाना शुरू
कर देते थे (अब भी ऐसा ही होगा)। मेरे पिताजी और भइया ने मुझे बहकाकर बाग में
खेलने भेज दिया और खुद साइकिल से मेला चल दिए। सही सही नहीं कह सकता कि क्या उम्र
रही होगी, लेकिन
चीन के साथ लड़ाई के पहले की बात है और स्कूल जाना शुरू करने के बाद की। यह अच्छी
तरह याद है कि घुटनों तक आने वाली भइया की पुरानी कोट पहने था। किसी लड़के ने
बताया कि बाबू-भइया मुझे दुर्वासा के लिए निकल पड़े हैं। अपने साथ ऐसा ‘छल’ बर्दाश्त के बाहर था, मैं सीधे अंडिका की सड़क की तरफ
दौड़ पड़ा। साइकिल का रास्ता घूमकर था और पैदल का सीधा। अंड़िका पहुंचते-पहुंचते
ये लोग जरा सा आगे निकल गए थे। खेत में काम करते किसी ने मुझे देख और पहचान लिया
और पिताजी को आवाज दिया। वे लोग रुक गए और ‘छल’ के
लिया पछतावा के बदले भइया मुझे ही डांटने लगे। खैर इसके वर्णन की न गुंजाइश है, न जरूरत। चांदनी रात में साइकिल
यात्रा में बहुत मजा आ रहा था। अंदाजन 20-25 किमी की दूरी होगी। इतना बड़ा मेला और
इतनी दुकानें,
इतने लोग एक जगह पहली बार देख रहा था। पिताजी के कई परिचित मिल गए। एक जगह चाय
पीने बैठे और अपने परिचितों से वार्तालाप में उलझ गए। छोटा सा कुल्हड़ होता था, मैं गरम गरम 4 चाय पी गया।
मुझे इन लोगों के वार्तालाप में मजा नहीं आ रहा था सो भूगोल का मुआयना करने चल
दिया। निशान तो दिमाग में बैठाकर चलता गया। एक अस्थाई दुकान पर पकौड़ियां बन रहीं
थी। दुकानदार से पकौड़ी मांगा, उसने
पूछा किसके साथ था? मैं
चवन्नी दिखाकर बोला था कि मेरे पास पैसा है। पकौड़ी खाकर थोड़ा कन्फुजिया तो मगर
उस चाय की दुकान पर पहुंचा तो ये लोग गायब। दुकानदार से पूछता तो वह बताता कि पिताजी
यहीं रुकने को कहे हैं लेकिन मैं इन लोगों को खोजने निकल पड़ा। लेकिन इतनी भीड़
में कैसे खोजूं? मेरे
मन में एक अज्ञात भय यह लेकर था कि किसी को पता न लग जाए मैं ‘खो’ गया हूं। मैं उसी पकौड़ी की
दुकान पर बैठ गया क्योंकि घर वापसी का वही रास्ता था। मन में अजीब अज्ञात घबराहट
हो रही थी और मैं छिपाने की कोशिस कर रहा था। तभी एक सज्जन कंबल ओढ़े आकर मेरी बगल
में बेंच पर बैठे और मेरी पीठ पर हाथ रख दिए। मैं डर गया। उन्होने बड़े दुलार से
पूछा, ‘तू
सुलेमापुर के सालिकराम पंडितजी क हेरायल लडिका हव न?’
मुझसे कुछ कहा नहीं गया। बस तेज तेज रोना शुरू कर
दिय़ा। वे वहीं बैठने को बोल पिजाजी को बताने-बुलाने चले गए। पिताजी को देखते ही
मैं लिपट कर रोने लगा। वे पगलू कर गोद में उठा लिए। लेकिन भैया को डांटने का मौका
मिल गया। खैर बाकी नहान और मेले की और यादें प्रासंगिक नहीं हैं। बाबा पागल नामकरण
कर चुके थे, लोगों
को सत्यापन के लिए एक और तथ्य मिल गया। मेरी बेटी मेरी किसी बेवकूफी पर पूछती है
कि मैं बचपन से ऐसे ही हूं क्या? मैं
स्पष्ट जवाब नहीं दे पाता।
29.11.2017
No comments:
Post a Comment