Sunday, November 26, 2017

बेतरतीब 25 (किशोर 2)

किशोर यादों के झरोखे से 2
यह तीन साल पहले (2014 में) अपने गांव सुलेमापुर से 7-8 किमी दूर लग्गूपुर (जूनियर हाई स्कूल, पवई, आज़म गढ) की वसंत ऋतु की स्कूल योत्राओं की याद आ गई और यह पद्यात्मक विरण लिखा गया। छठीं से आठवीं (9-12 लाल की उम्र) तक की पढ़ाई के लिए गांव से स्कूल तक की यात्रा बहुत रोचक होती थी। उन यात्राओं और उनसे सीख का गद्यात्मक वर्णन अलग से करूंगा। इन यात्राओं की एक घटना ने मेरे मन पर दूरगामी प्रभाव डाला, जिसका भी जिक्र अलग से करूंगा। मिडिल स्कूल में दाखिले के बाद की यादों को मैं किशोर यादों में ही रखता हूं।
वसंत
देखे हैं अब तक कितने ही वसंत
यादों की जिनके न आदि है न अंत
याद आ रहे हैं बहुत आज किशोर वय के बसंत
होते थे मन में भविष्य के सपने अनंत
रमता था मन जब आम के बौर और ढाक की कलियों में
नीम की मंजरी और मटर की फलियों में
आता वसंत मिलता ठिठुरती ठंढ से छुटकारा
बच्चे करते समूहगान में मां सरस्वती का जयकारा
निकल शीत के गर्भ से जब ऋतु वसंत आती
धरती को उम्मीदों की थाती दे जाती
सुंदर कविता की चादर चढ़ाकर कर देती और सुंदर धरती
भूलती नहीं कभीसरसों के फूलों की खुशबू की मस्ती
याद आते हैं गेहूं-चना-मटर के खेतों की मेड़ों के टेढ़े मेढ़े रास्ते
जाते थे स्कूल करते हुए मनसायन और खुराफातें
पहला पड़ाव था मुर्दहिया बाग, खेलते वहां लखनी या शुटुर्र
करते हुए इंतजार उन दोस्तों का गांव थे जिनके और भी दूर
पहुंचते ही उन सबके जुट जाता हम बच्चों का एक बड़ा मज्मा
मिलते और लड़के अगले गांवों में बढ़ता जाता हमारा कारवां
पहुंचते जमुना के ताल पर था जो हमारा अगला पड़ाव
उखाड़ते हुए चना-मटर -लतरा करते पार कई गांव
जलाकर गन्ने की पत्तियां भूनते थे हम होरहा जहां
और गांवों के लड़के कर रहे होते पहले से इंतज़ार वहां
गाता-गप्पियाता चलता जाता था हमारा कारवां
रुका फुलवरिया बाग में अंतिम पड़ाव होता था जहां
वहां से स्कूल तक हम सब अच्छे बच्चे बन जाते
रास्ते में क्योंकि कोई-न-कोई मास्टर दिख जाते
इतनी क्या क्या बातें करते होंगे उस उम्र के बच्चे
याद नहीं कुछ भी लेकिन थे नहीं कभी हम चुप रहते.
किसी को भी मिलता है ज़िंदगी में एक ही बचपन
रमता जब अमराइयों और सरसों के फूलों में मन
(ईमिः 03.02..2014)

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