Asrar Khan सिमों द बुआ से एक पत्रकार ने एक बार पूछा के जब महिलाएं खुद खुशी-खुशी पारंपरिक मूल्यों के साथ जी रही हैं तो वे उनपर अपने विचार क्यों थोपना चाहती हैं? उनका जवाब मैं अक्सर क़ोट करता हूं। उन्होने कहा कि वे इस जीवन से इसलिए खुश हैं कि उन्हें किसी और किस्म की ज़िंदगी का ज्ञान ही नहीं है, वे जीवन के दूसरे रास्तों का उन्हें भान ही नहीं है। वे किसी पर कुछ थोपना नहीं चाहतीं उन्हें जीवन के और सास्तों से भिग्य कराना चाहती हैं। हादिया के पिता के रवैये से आप समध सकते हैं वह किस माहौल में पली-बढ़ी, हो सकता है उसे किसी भगवान के बिना जीने का कोई भान ही न हो? वैसे भी भगवान की भय से मुक्ति के लिए जिस साहस और आत्मविश्वास की जरूरत और भक्तों की गालियों की सहनशीलता की उम्मीद आप सबसे नहीं कर सकते। धर्म की जड़ खत्म किए बिना धर्म नहीं खत्म किया जा सकता। हमारी धर्म से नहीं धर्म के नाम पर उंमादी लामबंदी से है; धर्मांधता से है। मार्क्स ने भी लिखा है धर्म को खत्म करने का प्रयास बचकाना है। धर्म खुशी की खुशफहमी देता है, लोगों को सचमुच की खुशी मिले और उन्हें आत्मबल का एहसास हो तो उन्हें खुशफहमी या किसी बाहरी शक्ति की जरूर नहीं रहेगी। धर्म अपने आप अप्रासंगिक होकर खत्म हो जाएगा। धर्म पर आक्रामक भाषा में हमलाकर आप हो सकता है किसी क्रांतिकारी संभावनाओं वाले युवा को अपनी संवादसीमा से दूर कर देते हैं। अनायास धर्म को विमर्श न बनाएं, बस तथ्य और तर्कपरक विश्लेषण करें। मैं भी कभी कभी तैश में कभी कभी अनावश्यक आक्रामक भाषा का प्रयोग कर देता हूं। यह अलाभकर है। आज के फासीवादीव आतंक के माहौल में मुद्दे और प्राथमिकताएं बदल गयी हैं।
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