Monday, November 27, 2017

फुटनोट 146 (बनारस 1985)

1985 की गर्मियों की बात है। मैं बनारस गया था गोदौलिया पर ठंडाई पिया, पता चला सादी ठंडाई के लिए बोलना पड़ता है कि सादी या बिना भांग की ठंडाई बोलना पड़ता है। मैंने सोचा बनारस आकर भांग की ठंडाई पीनी चाहिए था। मैं फिर से वापस गया और भांग की ठंडाई मांगा। उन्हें लगा कि कोई तगड़ा भंगेड़ी है तो थोड़ा डोज बढ़ा कर दिया। दशास्वमेध पर भोल शंकर से मुलाकात हो गई। हम जब हाई-स्कूल इंटर में पढ़ते थे (1967-72) तो गाहे-बगाहे जब मन करता था बिना टिकट बनारस चला जाता। किसी ने बताया था हर गली कहीं न कहीं घाट पर मिलती है। किसी गली में घूमते घाट और फिर दशाश्मेध। सिटी-बस, लोकल रेल और स्टीमर पर छात्र से दिखने वाले लोगों के पास अनौपचारिक पास होता था। 9वीं में जब शुरू में लोकल-पैसेजेंर में चलना शुरू किया तो शुरू शुरू में टिकट ले लेता था अद्धा 50 पैसे का होता था। देखा सब सीना ताने टिकट कलेक्टर को सलाम करते हुए निकल जा रहे हैं। गतानुगतिको लोकः और मैंने भी टिकट लेना बंद कर दिया । वैसे ऐसा करना नहीं चाहिए था लेकिन अब क्या फायदा? अस्सी से रामनगर स्टीमर चलता था। वैसे और भी बचपन में मैं एक स्टेसन है गंगा के किनारे, किस लाइन पर है और हम वहां पहुंचे कैसे थे याद नहीं, माधव सिंह। वहां से मिर्जापुर होते हुए विंध्याचल जाने के लिए पुल नहीं था, स्टीमर चलता था। उसकी विशालता देख चकपका गया था और सोचने लगा था कि जहाज कितना विशाल होता होगा। एक बार स्टीमर में बैठने के लिए राम नगर गया और उसी में वापस आ गया। फुटनोट में ऐसा उलझ जाता हूं कि टेक्सटवै छिप जाता है। खैर भोले शंकर की बात कर रहा था। दशास्वमेध पर चाय पीते हुए मैं उनसे कुछ पूछने लगा और बात होने लगी। फिर पता चला कि वे मल्लाह हैं और अपनी छोटी सी बंधी नाव भी दिखाया और आमंत्रित किया। मैंने कहा, "बिना पैसा क बैठइबा? वे हंसने लगे और बैठा लिया। 1985 में संयोग से मुलाकात हो गयी। बुलाया, आवा बिना पैसा क बैठाइ लेब। लेकिन मैं पैसा देकर बैठने को बोला त बोले ई एक लिखा और बा औ कामौ ना बा, कहनेह दूनों क इतना बीयचयू में कुछ सीनियर और रिश्तेदार बीयचयू में पढ़ते थे, रात रुकना होते तो उनके किसी के पास चले जाते नहीं तो गलियों में घूमते घाट और घाट-घाट दशास्वमेध और स्टेसन। नाव बीच गंगा में पहुंची और ठंडाई का असर आसमान पर। मुझे लगा नाव हेचकोले ले रही है और भोले शंकर से कहा नाव पलटने वाली है और इसी वाक्य की रट लगा दिया। भोले शंकर को समझ आ गया और उन्होंने पीतल के गगरे में गंगा से पानी भरा और 2-3 गगरा पानी ऊपर डाल दिया। नाव हिकोले लेना बंद हो गयी और वापस पहुंचने तक कपड़े सूख गए। वैसे अपनी मूर्खता की कहानियां नहीं शेयर करना चाहिए, लेकिन अब क्या?

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