यह सामंती, प्रतिक्रियावादी, विकृत पूंजीवाद है। मैंने पहले भी कहा था कि अभी स्टालिन-ट्रॉट्स्की विवाद में फंसे बिना हम आज की परिस्थिति की मार्क्सवादी परिप्रक्ष्य से समीक्षा करें और उस हिसब से कार्यनीति बनाएं। रोजा लक्ज़ंबर ने 1918 में रूसी क्रांति पर अपने कालजयी लेख में लिखा है कि रूस की खास परिस्थितियों में अपनाई गई रणनीति को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्राति के सार्वभौमिक सिद्धांत के रूप में नहीं पेश किया जाना चाहिए। लेकिन सीपीयसयू समेत कॉमिंटर्ऩ के तत्वाधान में बनी दुनिया की सभी पार्टियों ने रोजा की सलाह को नज़र-अंदाज किया और ऐतिहासिक संदर्भ विंदु और प्रेरणाश्रोत की बजाय रूसी क्रांति को सार्वभौमिक मिशाल मान लिया। मार्क्स ने 1848 में सशस्त्र वर्गसंघर्ष का आह्वान किया था लेकिन 1864 में प्रथम इंटरनेसनल के उद्बोधन में उनका तेवर बदला था, जिसके बारे में मार्क्स ने एंगेल्स को सफाई देते हुए लिखा कि सर्वस्वीकृति के लिए स्वर नरम है। 'हमें भाषा में नरम होना चागिए और कार्रवाई में सख्त क्योंकि 1848 सी क्रांतिकारी परिस्थियां कभी कभी बनती हैं। रूसी क्रांति तक पेरिस कम्यून की क्रांति का संदर्भ विंदु था। लेनिन ने 1871 की क्रांति के तरीके नहीं अपनाए, गलतियों से सीखा और सबसे पहले बैंकों और संप्रेषण संस्थानों पर कब्जा किया। निश्चित ही स्टालिन के पास लेनिन सी अंतर्दृष्टि नहीं थी फिर भी अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में स्टालिन ने जो किया या हमारे भारतीय वैचारिक पुरखों ने जो किया उसकी आलोचनात्मक समीक्षा होनी चाहिए, निंदा नहीं। रूसी क्रांति सामंतवाद और नवजात पूंजीवाद दोनों के विरुद्ध एकमुस्त थी। बुर्जुआ डेमोक्रेसी अल्पजीवी रही। क्रांति में, खासकर गृहयुद्ध और पूंजीवादी देशों के 'सफेद सेना' के समर्थन से जो विकट परिस्थितियां थीं, उनमें स्टालिन और ट्रॉट्स्की दोनों के सराहनीय योगदान हैं। सोवियत संघ, आर्थिक और सामरिक शक्ति स्टालिन के ही नेतृत्व में बना। स्टालिन की गल्तियों को अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों और खतरों के परिप्रक्ष्य में देखना चाहिए।
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