आत्मप्रेम
मैंने तो बचपन के बाद ही
त्याग दिया आत्मप्रेम
जानते हुए कि यह नैसर्गिक
इंसानी प्रवृत्ति है
याद हैं वे दिन
जब गर्मी की छुट्टियों में
चरवाही के दरम्यान
संठे से जमान पर उकेरता
अपना नाम
सभी ज्ञात भाषाओं में
और कोई कल्पित पदनाम
जैसे जैसे मालुम होती गयीं
कमियां
एहसास होता गया अपने
दुर्गुणों का
कैसे रख सकता जारी प्यार
ऐसे अपात्र से
न तो देखने-सुनने में किसी
लायक
ऊपर से सद्गुणों से विपन्न
संगीतशून्य और खेदकूद में
लद्धड़
शहरी भेष में छिपे न जिसका
देहातीपन
सिंगल पसली की काया
फूहड़ मजाक लगता बाहुबल का
कोई दावा
दुर्गुणों फेहरिस्त लंबी
इतनी
कि पागल उपनाम दिलाया
मैं क्या कैसे कर सकता है
प्यार कोई भी समझदार
ऐसे किसी सर्वदुर्गुणसंपन्न
शख्स से
पागल कहने वाले लोग मुझे
समझदार भी कहते थे
नहीं समझ पाता था रहस्य इस
शाब्दिक विरोधाभास का
शक करता था पागलपन पर
मान लिया था मगर समझदार
होने की बात
सो छोड़ दिया खुद से प्यार
और करने लगा जमाने से
क्योंकि प्यार के बिना कोई
रह भी तो नहीं सकता
(ईमिः 29.06.2015)
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