Thursday, June 11, 2015

ग़म-ए-दिल की बात क्या इस बेदर्द जमाने में

ग़म-ए-दिल की बात क्या इस बेदर्द जमाने में
लिखता हूं अब तो ग़म-ए-जहां की किताब
तन्हा पलों में मगर होता हूं जब बेकरार
तब याद आते हो तुम बेहिसाब
सताती कभी जब ग़म-ए-तन्हाई
लिखता तुम्हारे नाम सारे गमों का हिसाब
इतिहास के इस मातमी अंधे युग में 
खोजता हूं ग़म-ए-जहां के लिए एक माहताब
शाम-ए-ग़म की कसम रैन-बसेरा होगा
लिखूंगा तब तन्हाई में नये विहान की किताब
कहीं भी कोई भी कहीं दूर भी न अकेला होगा
गैर जरूरी हो जायेगा ग़मों का हिसाब-किताब
(ईमिः12.06.2015)

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