मित्रों, पिछले महीऩे मैंने 43 साल पहले 17 साल की उम्र में अपनी शादी का ज़िक्र विवाह पुराण शीर्षक से एक पोस्ट में किया था. शादी का फैसला तो मेरा नहीं था लेकिन शादी निभाने का फैसला मेरा था। किसी सामाजिक कुरीति के एक “victim”द्वारा more “co-victim” को further victimize करना अमानवीय होता. एक पुरुष प्रधान समाज में महिला more “co-victim” है. इसीलिये मैंने दूसरी शादी का कभी विचार नहीं किया. कुछ लोग मेरे ऊपर एक मर्दवादी होने की तोहमत लगाकर नारीविरोधी छवि बनाने की नाकाम-नापाक साज़िश कर रहे हैं. कई सामाजिक-राजनैतिक आंदोलनों से रहा हूं. घोषित रूप से वामपंथी राजनीति का पैरोकार रहा हूं, ब्यक्तिगत तथा राजजनैतिक रूप से मानता हूं कि लैंगिक तथा सामाजिक समानता आज का युग धर्म है. वैसे तो छात्र आंदोलनों में शिरकत के लिए छोटी-मोटी कई जेल यात्राएं की है, आपातकाल में कई महीनों का. मैं राजनीतिशास्ज्ञ का विद्यार्थी तथा शिक्षक हूं. जहां तक मुझे पता है हिंदू विवाह कानून के तहत सरकारी नौकरी करने वाला कोई भी व्यक्ति बगैर तलाक के दूसरी शादी नहीं कर सकता. मुझे हाल ही में पता चला है कि इसी विवि में पढ़ाने वाले, अतिविनम्र अतिमृदुभाषी नाऱी व्यथा से व्यथित होने वाले एक शिक्षक की पहली शादी मेरी ही तरह गांव में ही हो गयी थी, लेकिन दिल्ली आने के बाद बिना तलाक लिए उन्होंने दूसरी शादी कर ली. पहली शादी से उन्हें एक पुत्र भी था, जो पिता के अनैतिक व्यवहार को बर्दाशत न कर सका तथा अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ. मित्रों बतायें, आदर्श, नैतिकता तथा मर्यादा की दुहाई देने वाले शिक्षक का यह काम अमर्यादित तथा गैरकानूनी है या नहीं? उनकी प्रथम वैधानिक पत्नी आज भी पति से तिरस्कृत जीवन इनके गांव में ही बिता रही हैं. हमारी सहानुभूति उनके साथ है.
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