Friday, June 12, 2015

क्षणिकाएं 48 (691-700)

691
सोचा जब लिखने को एक प्रेम कविता 
लिखने लगा विदागीत  
अनादिकाल से चली आ रही है
मिलने बिछड़ने की रीत 
हमसफर हैं हम मंज़िल-ए-आज़ादी के
मिलेंगे रास्ते कहीं न कहीं
दोस्ती बदस्तूर रहती 
तो कोई और बात थी
रहबरी मंज़िल-ए-आज़ादी भी  कुछ कम नही
इस विदा गीत में  
दुबारा मिलने की गुंज़ाइश
हो जाती है बिल्कुल खत्म नहीं
पुरानी आदतों का छूटना होता है मुशकिल
फिर अतीत तो गर्द नहीं है
उड़ जाये जो एक कविता के झोंके में 
पर पुराने रास्तों पर 
नशे सी बेख्याली में ही वापस जाऊंगा
नहीं रोक पाऊंगा जब  
अपनी विकृतियों तथा उंमादों को
जो चश्मदीद गवाह हैंं
मेरी इंसानियत के
(ईमिः 29.05.2015)
692
जो कहता है चलने को अपने पीछे 
लात मारता हूं उसके बटुक प्रदेश पर
जो कहता है मेरे पीछे चलने की बात
मारता हूं मुक्का उसकी नाक पर
आओ चलते हैं साथ साथ 
(ईमिः 30.05.2015)
693
पहनो वही तुम्हें जो भाये
बोलो वही जो प्रमाणित कर पाओ
आज़ादी को दो नई परिभाषा 
बढ़ने दो कठमुल्लों की हताशा
(ईमिः 01.06.2015)
694
अंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल पर पाबंदी पर प्रतिक्रिया

वे डरते हैं बुद्ध से
वे डरते हैं बुद्धि से
वे डरते हैं मार्क्स से
वे डरते हैं विज्ञान से
वे डरते हैं फुले से
वे डरते हैं इतिहास से
वे डरते हैं अंबेडकर से
वे डरते हैं जाति के सर्वनाश से
वे डरते हैं सच से
वे डरते हैं मेहनतश के हक़ से
वे डरते हैं आवाम से
वे डरते हैं खुद से
वे डरते हैं स्वतंत्र सोच से
वे डरते हैं किताब से
वे डरते हैं इंकिलाब से
इसी लिये डराते हैं सत्ता के हथियारों से
गूंजेगा इससे चप्पा इंकिलाब के नारों से
वे डरते हैं कि हमने डरना बंद कर दिया
हमें डराते रहना है उन्हें
बंदूक से नहीं विचारों से
(ईमिः01.06.2015)
यह तुकबंदी 1 लोकप्रिय क्रांतिकारी गीत से प्रेरित है)
695
गर्मी भी खुद राहत ले आती है
गगन में गुलमोहर की लालिमा फैलाती है
माहौल को लीची-ओ-आम की खुशबू से भर देती है
महुआ के फूलों से धरती सज जाती है
सोच यह बात बचपन की याद अाती है
(ईमिः 02.03.2015)
696

ग़म-ए-दिल की बात क्या इस बेदर्द जमाने में
लिखता हूं अब तो ग़म-ए-जहां की किताब
तन्हा पलों में मगर होता हूं जब बेकरार
तब याद आते हो तुम बेहिसाब
सताती कभी जब ग़म-ए-तन्हाई
लिखता तुम्हारे नाम सारे गमों का हिसाब
इतिहास के इस मातमी अंधे युग में 
खोजता हूं ग़म-ए-जहां के लिए एक माहताब
शाम-ए-ग़म की कसम रैन-बसेरा होगा
लिखूंगा तब तन्हाई में नये विहान की किताब
कहीं भी कोई भी कहीं दूर भी न अकेला होगा
गैर जरूरी हो जायेगा ग़मों का हिसाब-किताब
(ईमिः12.06.2015)
697
पाब्लो नरूद की 1 कालजयी कविता से प्रेरितः

वह भी मर जाता है शनैः शनैंः
खोजता है सुरक्षा जो डरकर जीने में
और समझौता परस्ती में सुख
ईयमआई से त्रस्त धनी नौकरों की तरह
(ईमिः09.06.2015)
698
शामे ग़म तेरी कसम ये शाम तुम्हारे नाम 
करता हूं जब भी ग़म-ए-जहां का हिसाब
खुल जाती है तुम्हारी यादों की किताब
याद आती है कही-अनकही बातें बेहिसाब
सोचता हूं जब भी रहबरी यादों की नाव में
कोलाहल मच जाता है सपनों के गांव में 
(इमिः12.06.201
699
मरना शुरू कर देता है वह आहिस्ता आहिस्ता
---- पाब्लो नरूदा

मरना शुरू कर देता है वह आहिस्ता आहिस्ता
अनभिज्ञ है जो सुख से यायावरी के
नहीं करता जो दोस्ती किताबों से
सुन नहीं पाता जो जीवन का संगीत
और कर नहीं पाता खुदी की दावेदारी


मरना शुरू कर देता है वह आहिस्ता आहिस्ता
कत्ल करता है जो अपना ज़मीर
और कर देता है मदद लेने से इंकार


शुरू कर देता है मरना वह आहिस्ता आहिस्ता
होता है जो आदतों का गुलाम
और चलता रहता है घिसी-पिटी लीक पर
जो नहीं बदलता है एकरसता की दिनचर्या
वह जो अपरिचिच बना रहता हैै रंगों की विविधता से
या नहीं करता अपरिचितों से संवाद


मरना शुरू कर देता है वह आहिस्ता आहिस्ता
यदि बचता है संवेदनाओं की गहन अनुूभूति से
और उनकी कोलाहली भावनाओं से
जो पैदा करती हैं आंखों में श्रवणशक्ति
और तेज कर देती हैं दिल की धड़कनें


मरना शुरू कर देता है वह आहिस्ता आहिस्ता
यदि नहीं बदलता ऊबकर भी नौकरी या प्रेमिका
यदि नहीं छोड़ता यथास्थिति की निशचितता
और नहीं उठाता जोख़िम नयी खोज का
यदि रोकता है खुद को करने से इंकार
ज़िंदगी में कम-से-कम एक बार
मानने से विरासती विचार
(अनुवादः ईश मिश्रः 12.06.2015)
700
खामोशी
ईश मिश्र

हमारी खामोशी
हमारे ही नहीं जमाने के खिलाफ है
आजादी के तराने खिलाफ है
इंसानियत के मायने के भी खिलाफ है

तोड़ना ही होगा खामोशी
जुल्म को मिटाने के लिए
लगाना ही होगा नारे
बम-गोले के शोर को दबाने के लिए

अभी तो हमें उनके हिस्से के भी नारे लगाने हैं
जिनके पास वक्त नही है
उसका वे सौदा कर चुके हैं
दो जून की रोटी के लिए

उन फिलिस्तीनिओ के हिस्से के भी नारे लगाने हैं
जिनके पास इतिहास है भूगोल नहीं
जिनके नारे दब जाते हैं
इज़्र्रायली बमों के शोर और मलवोन के ढेर में

उन किसानों के भी हिस्से के भी
जो खुदकुशी की कोशिशों में मशगूल हैं
उन आदिवासिओ के नारों में भी सुर मिलना है
जिनके नारे टाटा-वेदांता के सोने की खनक को लल्कारते हैं

उन अभागो के हिस्से के भी नारे लगाने हैं
जिनके पास जुबान नहीं है
उसे वे गिरवी रख चुके सेठ के पास
जिंदगी की ऐयाशी के लिए

हमें तब तक लगाते रहना है नारे
जब तक सब
अपने-अपने हिस्से के नारे ख़ुद न लगाने लगें
और नारेबाजी की जरूरत खत्म हो जाए
[ईमि/24.4.2011]

701

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