यह इक्कीसवी सदी की मूर्तिभंजक औरत है
जिसने बंद कर दिया है किस्मत का रोना-गाना
प्रज्ञा से बना दिया है मर्दवाद को हास्यास्पद खिलौना
तोड़ती है सब प्रतिबंध सेंसर, कर्फ्यू और वर्जना
करता है कलम इसका बेबाक बुलंद सिंह गर्जना
इक्कीसवी सदी की यह औरत नहीं है अब अकेली
सारा कायनात है अब इसके संघर्षों की सहेली
नहीं करती पूज्या बन किसी मंदिर में अंतर्नाद
न ही बन भोग्या किसी गैर का घर आबाद
जलाकर करती है रीति-रिवाज़ों के बंधन बर्बाद
लगाती है अब नारा-ए-इंक़िलाब ज़िंदाबाद
नहीं गाती यह अब नगाड़े की चोट पर नौटंंकी की बहर
लाती नई सबा गढ़ती नया खुशनुमा सहर
इसके हाथ में श्रृंगार की डिबिया नहीं बंदूक होती है
यह औरत कॉफी नहीं बनाती क्रांति करती है
(ईमिः 29.06.2015)
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