आपातकाल की आहट?
साथियो,
इतिहास खुद को दोहराता नहीं, सिर्फ उसकी प्रतिध्वनि सुनाई देती है। और 40 साल पहले लगाए गए आपातकाल की मौजूदा प्रतिध्वनि वाकई भयावह है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से पैदा उथलपुथल और अपनी सरकार की विश्वसनीयता धूल में मिल जाने से बौखलाई इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया था। इसके तहत सांवैधानिक अधिकारों को मुलतवी कर दिया गया था। सख्त प्रेस सेंसरशिप के जरिए संपादकों को सरकार की मर्जी के आगे नतमस्तक होने पर मजबूर कर दिया गया था। प्रधानमंत्री ने संविधान के 42वें संशोधन के तहत असीमित अधिकार हथिया लिए थे। सरकार की अलोकतांत्रिक नीतियों का विरोध करने वाले हजारों लोगों को कैदखानों में डाल दिया गया था।
इंदिरा गांधी की सत्ता के अपने हाथों में केन्द्रीकरण की मुहिम 1974 तक चरम पर पहुंच चुकी थी। यहां तक कि उनके वफादार एक कांग्रेस अध्यक्ष ने ‘इंदिरा और इंडिया’ को एकदूसरे का पर्याय बता दिया था। ‘गरीबी हटाओ’ जैसे लुभावने नारों ने इंदिरा गांधी को एक करिश्माई छवि दी थी। वर्ष 1971 की बंगलादेश की लड़ाई के बाद युद्धोन्माद के माहौल में उनकी ऐसी आंधी चली कि सिंडिकेट के नाम से मशहूर कांग्रेस (ओ) के दिग्गजों के पांव उखड़ गए। संसद में अभूतपूर्व बहुमत ने इंदिरा गांधी को अधिक तानाशाह और बदमिजाज बना दिया। सांसद उनके चापलूसों की फौज में तब्दील हो गए। लेकिन सिर्फ नारों से कोई कितने समय तक लोकप्रिय बना रह सकता है? इंदिरा गांधी का करिश्मा घटने लगा और उनकी सरकार को खास तौर से छात्रों के लोकप्रिय आंदोलन का सामना करना पड़ा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के कोई भी सांवैधानिक पद संभालने पर रोक लगा दी थी। उसके इस फैसले की उच्चतम न्यायालय से पुष्टि की संभावना के बीच उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर दी और समूचे देश में मौत का सन्नाटा छा गया। विरोध की आवाजों को कुचल दिया गया। अदालतों में सरकार के प्यादे न्यायाधीशों को भरा जाने लगा जिसके विरोध में उच्चतम न्यायालय के जमीर वाले जजों ने इस्तीफा दे दिया।
2014 में नरेन्द्र मोदी विकास के नाम पर प्रचंड बहुमत हासिल कर भारतीय जनता पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करते हुए देश के एकमात्र नेता के तौर पर उभरे। उनका पिछले साल भर का कार्यकाल लोकतंत्र और देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए गंभीर खतरा साबित हुआ है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, इतिहास खुद को नहीं दोहराता मगर मौजूदा समय में एक अघोषित आपातकाल की आहट साफ-साफ सुनी जा सकती है।
इंदिरा गांधी का राजनीतिक उदय अकालों और सामाजिक अशांति के कारण बढ़ती गरीबी और आर्थिक विपत्ति की स्थिति में हुआ। ‘गरीबी हटाओ’ के लुभावने नारे और युद्धोन्माद के अलावा प्रिवी पर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण की जनपक्षीय नीतियों ने भी उन्हें जबर्दस्त लोकप्रियता दी। दूसरी ओर मोदी के राजनीतिक उदय का रास्ता भ्रष्टाचार में लिपटी कांग्रेस के कुशासन और उसकी जनविरोधी नीतियों तथा उसके राष्ट्रीय विकल्प के अभाव की स्थिति में खुला। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी चुनावी सफलता के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया जिसके तहत बड़े पैमाने पर जनसंहारों, सामूहिक बलात्कारों और अल्पसंख्यकों को उनके घरों से बेदखल करने के अभियानों को अंजाम दिया गया। लोकसभा चुनावों से पहले मुजफ्फरनगर-शामली जैसे साम्प्रदायिक खूनखराबे नहीं कराए गए होते तो तथाकथित विकास पुरुष को अभूतपूर्व सफलता मिलना असंभव था।
मोदी ने अपने साल भर के शासन में योजना आयोग जैसी संस्थाओं को सरकार का चाकर बना दिया है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद जैसी संस्थाओं में संदिग्ध योग्यता वाले संघ परिवार समर्थकों को भरा जा रहा है। सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के जरिए किसानों को लूटने में लगी है। बजटीय अनुदान घटा कर तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालय कानून और सीबीसीएस के माध्यम से उच्च शिक्षा को नष्ट किया जा रहा है। साम्प्रदायिक तनाव फैलाने और अल्पसंख्यकों को डरा-धमका कर उनके घरों से बेदखल करने के नए-नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। पेरियार-अंबेडकर स्टडी सर्किल पर पाबंदी तथा दिल्ली में सेंट स्टीफन और हिंदू काॅलेज के छात्रों और शिक्षकों के खिलाफ कार्रवाई की घटनाएं दिखाती हैं कि सरकार आलोचना और विरोध की आवाज को खामोश करने पर आमादा है। क्रांतिकारी सांस्कृतिक संगठनों पर संघ परिवार के हमले गंभीर चिंता का विषय हैं। असंतोष और अपनी तानाशाही नीतियों के विरोध को कुचलने के लिए इंदिरा गांधी के पास सिर्फ दमनकारी सरकारी तंत्र था। मगर मोदी के पास सरकारी दमनतंत्र के अलावा विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के गुंडों के बड़े गिरोह भी हैं।
इस संदर्भ में हमने इमरजेंसी की वर्षगांठ के काले दिवस पर विचार विमर्श के लिए ‘आपातकाल की आहट?’ को विषय चुना है। आपसे अनुरोध है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकाल कर इस सभा में शिरकत करें।
कार्यक्रम
इमरजेंसी की वर्षगांठ पर सभा
आपातकाल की आहट?
तारीखः 25 जून, 2015 (गुरूवार)
समयः शाम 5.30 बजे
स्थानः गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली
(नजदीकी मेट्रो स्टेशनः आईटीओ)
वक्ताः न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) राजिन्दर सच्चर, कुलदीप नैयर (वरिष्ठ पत्रकार), अशोक पांडा (अधिवक्ता, उच्चतम न्यायालय), एनडी पंचोली (अध्यक्ष, दिल्ली पीयूसीएल), डा0 अपर्णा (राष्ट्रीय सचिव, इफ्टू) और ईश मिश्र (संयोजक, जनहस्तक्षेप)।
आयोजकः पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल), सेंटर फार डेमोक्रेसी (सीएफडी), जनहस्तक्षेप और चंपा फाउंडेशन।
ह0/
एनडी पंचोली (अध्यक्ष, दिल्ली पीयूसीएल)
ईश मिश्र (संयोजक, जनहस्तक्षेप)
साथियो,
इतिहास खुद को दोहराता नहीं, सिर्फ उसकी प्रतिध्वनि सुनाई देती है। और 40 साल पहले लगाए गए आपातकाल की मौजूदा प्रतिध्वनि वाकई भयावह है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से पैदा उथलपुथल और अपनी सरकार की विश्वसनीयता धूल में मिल जाने से बौखलाई इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया था। इसके तहत सांवैधानिक अधिकारों को मुलतवी कर दिया गया था। सख्त प्रेस सेंसरशिप के जरिए संपादकों को सरकार की मर्जी के आगे नतमस्तक होने पर मजबूर कर दिया गया था। प्रधानमंत्री ने संविधान के 42वें संशोधन के तहत असीमित अधिकार हथिया लिए थे। सरकार की अलोकतांत्रिक नीतियों का विरोध करने वाले हजारों लोगों को कैदखानों में डाल दिया गया था।
इंदिरा गांधी की सत्ता के अपने हाथों में केन्द्रीकरण की मुहिम 1974 तक चरम पर पहुंच चुकी थी। यहां तक कि उनके वफादार एक कांग्रेस अध्यक्ष ने ‘इंदिरा और इंडिया’ को एकदूसरे का पर्याय बता दिया था। ‘गरीबी हटाओ’ जैसे लुभावने नारों ने इंदिरा गांधी को एक करिश्माई छवि दी थी। वर्ष 1971 की बंगलादेश की लड़ाई के बाद युद्धोन्माद के माहौल में उनकी ऐसी आंधी चली कि सिंडिकेट के नाम से मशहूर कांग्रेस (ओ) के दिग्गजों के पांव उखड़ गए। संसद में अभूतपूर्व बहुमत ने इंदिरा गांधी को अधिक तानाशाह और बदमिजाज बना दिया। सांसद उनके चापलूसों की फौज में तब्दील हो गए। लेकिन सिर्फ नारों से कोई कितने समय तक लोकप्रिय बना रह सकता है? इंदिरा गांधी का करिश्मा घटने लगा और उनकी सरकार को खास तौर से छात्रों के लोकप्रिय आंदोलन का सामना करना पड़ा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के कोई भी सांवैधानिक पद संभालने पर रोक लगा दी थी। उसके इस फैसले की उच्चतम न्यायालय से पुष्टि की संभावना के बीच उन्होंने आपातकाल की घोषणा कर दी और समूचे देश में मौत का सन्नाटा छा गया। विरोध की आवाजों को कुचल दिया गया। अदालतों में सरकार के प्यादे न्यायाधीशों को भरा जाने लगा जिसके विरोध में उच्चतम न्यायालय के जमीर वाले जजों ने इस्तीफा दे दिया।
2014 में नरेन्द्र मोदी विकास के नाम पर प्रचंड बहुमत हासिल कर भारतीय जनता पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करते हुए देश के एकमात्र नेता के तौर पर उभरे। उनका पिछले साल भर का कार्यकाल लोकतंत्र और देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए गंभीर खतरा साबित हुआ है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, इतिहास खुद को नहीं दोहराता मगर मौजूदा समय में एक अघोषित आपातकाल की आहट साफ-साफ सुनी जा सकती है।
इंदिरा गांधी का राजनीतिक उदय अकालों और सामाजिक अशांति के कारण बढ़ती गरीबी और आर्थिक विपत्ति की स्थिति में हुआ। ‘गरीबी हटाओ’ के लुभावने नारे और युद्धोन्माद के अलावा प्रिवी पर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण की जनपक्षीय नीतियों ने भी उन्हें जबर्दस्त लोकप्रियता दी। दूसरी ओर मोदी के राजनीतिक उदय का रास्ता भ्रष्टाचार में लिपटी कांग्रेस के कुशासन और उसकी जनविरोधी नीतियों तथा उसके राष्ट्रीय विकल्प के अभाव की स्थिति में खुला। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी चुनावी सफलता के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया जिसके तहत बड़े पैमाने पर जनसंहारों, सामूहिक बलात्कारों और अल्पसंख्यकों को उनके घरों से बेदखल करने के अभियानों को अंजाम दिया गया। लोकसभा चुनावों से पहले मुजफ्फरनगर-शामली जैसे साम्प्रदायिक खूनखराबे नहीं कराए गए होते तो तथाकथित विकास पुरुष को अभूतपूर्व सफलता मिलना असंभव था।
मोदी ने अपने साल भर के शासन में योजना आयोग जैसी संस्थाओं को सरकार का चाकर बना दिया है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद जैसी संस्थाओं में संदिग्ध योग्यता वाले संघ परिवार समर्थकों को भरा जा रहा है। सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के जरिए किसानों को लूटने में लगी है। बजटीय अनुदान घटा कर तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालय कानून और सीबीसीएस के माध्यम से उच्च शिक्षा को नष्ट किया जा रहा है। साम्प्रदायिक तनाव फैलाने और अल्पसंख्यकों को डरा-धमका कर उनके घरों से बेदखल करने के नए-नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। पेरियार-अंबेडकर स्टडी सर्किल पर पाबंदी तथा दिल्ली में सेंट स्टीफन और हिंदू काॅलेज के छात्रों और शिक्षकों के खिलाफ कार्रवाई की घटनाएं दिखाती हैं कि सरकार आलोचना और विरोध की आवाज को खामोश करने पर आमादा है। क्रांतिकारी सांस्कृतिक संगठनों पर संघ परिवार के हमले गंभीर चिंता का विषय हैं। असंतोष और अपनी तानाशाही नीतियों के विरोध को कुचलने के लिए इंदिरा गांधी के पास सिर्फ दमनकारी सरकारी तंत्र था। मगर मोदी के पास सरकारी दमनतंत्र के अलावा विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के गुंडों के बड़े गिरोह भी हैं।
इस संदर्भ में हमने इमरजेंसी की वर्षगांठ के काले दिवस पर विचार विमर्श के लिए ‘आपातकाल की आहट?’ को विषय चुना है। आपसे अनुरोध है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकाल कर इस सभा में शिरकत करें।
कार्यक्रम
इमरजेंसी की वर्षगांठ पर सभा
आपातकाल की आहट?
तारीखः 25 जून, 2015 (गुरूवार)
समयः शाम 5.30 बजे
स्थानः गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली
(नजदीकी मेट्रो स्टेशनः आईटीओ)
वक्ताः न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) राजिन्दर सच्चर, कुलदीप नैयर (वरिष्ठ पत्रकार), अशोक पांडा (अधिवक्ता, उच्चतम न्यायालय), एनडी पंचोली (अध्यक्ष, दिल्ली पीयूसीएल), डा0 अपर्णा (राष्ट्रीय सचिव, इफ्टू) और ईश मिश्र (संयोजक, जनहस्तक्षेप)।
आयोजकः पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल), सेंटर फार डेमोक्रेसी (सीएफडी), जनहस्तक्षेप और चंपा फाउंडेशन।
ह0/
एनडी पंचोली (अध्यक्ष, दिल्ली पीयूसीएल)
ईश मिश्र (संयोजक, जनहस्तक्षेप)
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