क्या छिपा है समंदर सी गहरी इन आँखों में
ईश मिश्र
क्या छिपा है समंदर सी गहरी इन आँखों में
संकल्पशील मुस्कान के गहन, बुलंद इरादों में?
बदलने निकली हो जैसे दुनिया के रश्म-ओ-रिवाज
तोड़ने तेग चंगेजों की, हिटलरों के तख़्त-ओ-ताज
इन आँखों में छिपी है जो प्रज्वलित आग
अलाप रही है वर्जनाओं से विद्रोह के राग
कितनी दुर्लभ है यह आग आज के ज़माने� में
इसीलिये तो खास हो इन्किलाबी आशियाने में
बचा कर रखो इसे अपने सीने में
काम आयेगी यह खुद्दारी से जीने में
नज़रों के तीर हैं तुम्हारे इरादों के हरकारे
नेश्त-नाबूद कर देंगे हुश्न के पिंजरे सारे
साधुवाद दुनिया के दुश्मनों से नफ़रत के लिये
और जमीर-ए-ज़िन्दगी, मेहनत से मुहब्बत के लिये
उड़ो इतना ऊंचा कि आसमां भी सीमा न हो
धरती कभी भी लेकिन नज़रों से ओझल न हो
[१२.१२.१२]
[१२.१२.१२]
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