Saturday, December 1, 2012

एक फासीवादी के मातम का कुहराम


एक फासीवादी के मातम का कुहराम: बाल ठाकरे को राष्ट्रीय सम्मान
ईश मिश्र
“मैंने उम्र भर उसके खिलाफ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके शोक में सारा देश शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम काट दें.
…..”
-- पाश

पूर्व प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी के मातम के कुहराम पर लिखी यह पाश की कविता  फासीवादी संगठन शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के मातम पर भी कितनी खरी उतरती है. इस कुहराम ने पुरानी दुखद यादें ताजी कर दी. ऐसा ही कुहराम रणवीर सेना के  मुखिया के मातम में भी देखने को मिला लेकिन उसका स्तर, प्रभाव और खतरे इतने व्यापक नहीं थे. कालेज में पढने वाली, साहीन नाम की एक छात्रा ने सो़सल-नेटवर्किंग के एक मंच, फेसबुक पर, “पूरे सम्मान के साथ” मातम के इस तरीके से असहमति जताते हुए इस सर्विदित रहस्य का उदघाटन कर दिया कि लोग भय से उसके सजदे पढ़ रहे हैं श्रद्धा से नहीं. और यह कि सम्मान कमाया जाता है बलपूर्वक नहीं अर्जित किया जा सकता और यह कि मातम में मुम्बई सम्मान में नहीं भय से बंद रहा. एक अन्य छात्रा, रेणु ने फेसबुक की ही आभासी दुनिया में उससे सहमति जता दी. वास्तविक दुनिया में उन पर कहर बरप गया. उन्हें धमकियां मिलने लगीं. साहीन के एक रिश्तेदार के चिकित्सालय में “सैनिकों” ने तोड़-फोड़ करते हुए हंगामा मचा दिया. साहीन ने अपना फेसबुक का खाता बंद कर दिया और मुंह पर टेप के साथ दूसरी प्रोफाइल बना ली. उसने अपनी इस असहमति की अभिव्यक्ति के लिये भय से माफी भी मांग ली. हंगामा करने वाले इन लम्पट “सैनिकों” को गिरफ्तार करने की बजाय पुलिस ने उन लड़कियों को ही “धार्मिक वैमनस्य” फैलाने और “दो वर्गों में कटुता” पैदा करने के आरोप में बंद कर दिया. गनीमत है कि भारत के बृहत्तर, वैविध्य सामाजिक परिवेश में, अभिव्यक्ति के इन खतरों के बावजूद फासीवाद का विरोध भी पर्याप्त मुखर है. प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने, अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार की संवैधानिक धाराओं के हवाले से मुख्य मंत्री को इस गिरफ्तारी के विरुद्ध और शिवसैनिकों की सहायक टुकड़ी की भाँति काम करने वाले दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की अनुशंसा करते हुए २ पत्र लिखा. ये लड़कियां को तो जमानत पर छूट गयीं किन्तु शायद ही भय-मुक्त हुई हों. पुलिसकर्मियों पर भी खानापूर्ति के अलावा संविधान उल्लंघन के जुर्म में शायद ही कोई कार्रवाई हो. यह राज्य समर्थित भारतीय फासीवाद का प्रामाणिक चरित्र है. अजीब बात है जो आजीवन खुले आम धार्मिक वैमनस्य और साप्रदायिक नफ़रत फैलाता रहा उसे २१ तोपों की सलाम के साथ राष्ट्रीय सम्मान और उसके समर्थकों के कुहराम सर असहमति जताने वालों पर इलज़ाम.

यदि किसी को, बहुत साल पहले से सलाखों के पीछे होना चाहिये था, तो वह बाल ठाकरे को. न सिर्फ इसलिए कि बाबरी विध्वंस के बाद साम्प्रदायिक उत्पात में सरकार द्वारा गठित आयोग द्वारा दोषी ठहराए जाने के लिए (राम ही जानें कि श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट सरकार की किस रद्दी फ़ाइल में दबी है) बल्कि लगभग ४ दशकों तक मुल्क के विभिन्न क्षेत्रीय; धार्मिक; जातीय; वर्गीय समुदायों के विरुद्ध नफ़रत फैलाने के निरंतर अभियान के लिये भी. सर्वविदित है कि ट्रेड यूनियन संहारक की ख्याति अर्जित कर चुके “मराठी मानुष” के पैगम्बर ने १९७० में वामपंथी ट्रेड यूनियन नेता कामरेड देसाई की न सिर्फ नृशंस हत्या करवाया बल्कि सार्वजनिक मंचों से गर्वपूर्वक इस “वीरतापूर्ण” कृत्य के लिये हत्यारे शिव सैनिकों को बधाई भी दिया था. १९८४ में इंडिया टूडे में उनका बयान भी सर्वविदित है.“मुसलमान कैंसर की तरह फ़ैल रहे हैं और  कैंसर की ही तरह इन्हें काट फेंकना चाहिए. पुलिस को उनके (हिन्दू-महासंघ के) इस संघर्ष में सहयोग करना चाहिए.” गौरतलब है कि दिल्ली के रामलीला मैदान में १९७५ की ऐतिहासिक जनसभा में, जयप्रकाश नारायण ने सशसस्त्र बलों का संविधानेतर कार्यों के लिये नहीं, बल्कि संविधानेतर आदेशों की अवहेलना का आह्वान किया था. देश की सुरक्षा और क़ानून-व्यवस्था को इतना खतरा महसूस हुआ था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित कर दिया. नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को निलंबित कर सारे राजनैतिक विरोधियों को जेलों में बंद कर दिया था. उसके बाद देश में १९ महीने के फासीवाद के आतंक का माहौल इतिहास बन चुका है. यह भी गौर तलब है कि बाल ठाकरे ने संजय गांधी के २० सूत्री कार्य कार्यक्रम का समर्थन करके न सिर्फ आपातकाल को उचित बताया बल्कि संजय गांधी की सम्विधानेतर हस्ती और कुकृत्यों का महिमा-मंडन करते हुए उसे “बहादुर युवक” के खिताब से भी नवाजा था.

हिटलर के इस मुखर अनुयायी द्वारा संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले आपराधिक कृत्यों और वक्तव्यों के लिये किसी स्टिंग आपरेसन या पुलिस की फाइलें खंघालने की आवश्यकता नहीं है. एक सच्चे और ईमानदार फासीवादी की तरह मीडिया में और सार्वजनिक मंचों से, वे अपने पुनीत विचारों को, पूरी आक्रामकता और गर्व के साथ व्यक्त करते थे. मरने के पहले पाकिस्तान के साथ मैच न होने देने की धमकी की उद्घोषणा कर गये. हिटलर प्रेम की ही तरह उन्होंने मुसलामानों से अपनी नफ़रत, दूसरे राज्यों के कामगारों की मुम्बई में अवांछनीयता के अपने उद्गारों में उन्होंने कभी कोई असमंजस नहीं दिखाया. न ही उन्होंने धृष्ट अंधराष्ट्रवाद और घनघोर फिरकापरस्ती के एजेंडे के साथ कभी कोई समझौता किया. १९६० के दशक में ठाकरे के कार्टूनिस्ट से फासिस्ट बनने और शिव सेना के गठन के बाद से अब तक जब जब दबे कुचले वर्ग या मजदूर अपने हक़ की आवाज़ बुलंद करते हैं, पहुँच जाते हैं उनके शिव सैनिक उनकी आवाज़ कुचने. बाल ठाकरे को कुछ लोग शेर कहते हैं लेकिन इनके रणबांकुरे निहत्थे निर्दोषों को शिकार बनाते रहे. १९९२-९३ के भीषण, बर्बर साम्प्रदायिक हिंसा समेत ठाकरे के कृत्यों-कुकृत्यों की सूची लंबी है. ठाकरे ने जुझारू वामपंथी ट्रेड युनियनों की उल्लेखनीय उपस्थिति और प्रभाव वाले औद्योकिल इलाके से अपने रूमानी फासीवादी उपक्रम को अंजाम देने की शुरुआत की. जमीन की कीमतें आसमान छू रही थीं. १९८२ में दत्ता सामंत राय के नेतृत्व में ऐतिहासिक हड़ताल में लगभग २४,०० कामगारों ने शिरकत किया था. तभी से उद्योगों के विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गयी. छंटनी के लिये   उद्योगों के मालिकों ने जान बूझ कर उन्हें मरने दिया ताकि उन्हें जमीं बेचने का मौक़ा मिल जाए. यही से शुरू हुआ ठाकरे का खेल बिल्डरों से  गठजोड़ से राजसी जीवन और समृद्धि के साथ पढ़े-लिखे मराठी युवकों को दिग्भ्रमित करके मराठी मानुष के हित और हिंदुत्व के गर्व के नाम पर, बाहुबल से तमाम समुदायों में फासीवादी आतंक का मुहिम शुरू किया. गौरतलब है कि १९६० के दशक में औद्योगिक मजदूरों के जुझारू संघर्षों और वामपंथ की बढती ताकत से निपटने के लिये इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकारें ठाकरे जैसी ताकतों को प्रोत्साहित कर रही थीं. १९६६ मे गठन के बाद पहला बड़ा कारनामा जिसे शिवसेना ने अंजाम दिया वह था मजबूत जनाधार वाले ट्रेड यूनियन नेता एवं दादर से सीपीआई विधायक कामरेड कृष्णा देसाई की दिन-दहाड़े क्रूरतापूर्ण तरीके से ह्त्या की. पहली सामूहिक ह्त्या को अंजाम दिया जून १९७० में.  दक्षिण भारतीयों में भय का आतंक फैलाने के लिये ६९ कर्नाटक वासियों का. बेरोजगार मराठियों के मन में यह भाव भरा कि अवसर का रास्ता दूसरे प्रदेशों और धर्मों के लोगों का सर फोड़ कर भयाक्रांत करने में ही है. शिवसेना के रणबांकुरों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके शिकार दक्षिण भारतीय मजदूर है या छोटे-मोटे गुजराती व्यापारी; छोटे-मोटे काम-धंधे और मेहन-मजदूरी करने वाले उत्तरप्रदेश, बिहार या हरयाना के लोग; ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता हों या मुसलमान. इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके ज्यादातर शिकार हिन्दू थे. फासीवादी ताकतों की ही तरह सेना के पास जनता के लिये कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं है. भारतीय शासक वर्गों की उदारवादी ताकतें इस तरह की प्रवृत्तियों से टकराव लेने की बजाय समझौता करती रही हैं. भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में फासीवाद की सफलता फिलहाल नहीं दिखती लेकिन संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता.      

 बाल ठाकरे ने यूरोपीय नवजागरण के राजनैतिक दार्शनिक, मैकियावाली  के विचारों को भली ही  पढ़ा न हो, लेकिन सैन्य-शक्ति पर आधारित एक सफल शासक के लिये उसके कई मशविरों पर अमल करते नज़र आते हैं. वह कहता है कि शासितों की वफादारी प्रेम से मिल जाये तो बहुत अच्छा. लेकिन प्रेम अस्थिर होता है. भय ज्यादा भरोसेमंद साधन है. उसे इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए कि लोग उससे घृणा करते हैं जब तक वे उससे डरते रहें. एक जनतांत्रिक व्यवस्था में इतनी खतरनाक फासीवादी प्रवृत्ति और अभियान के जनक, एक अवैधानिक “सेना” के सुप्रीमो पर भारतीय दंड संहिता की धाराओं के तहत मुकदमा चलाने की बजाय, सरकारें, एक संविधानेतर “अति-गणमान्य” हस्ती के रूप में ज़ेड कोटि की सुरक्षा प्रदान करती करती रहीं. सरकार न सिर्फ उनके मातम में उनके अनुयायियों को कोहराम मचाने में मददगार रही और सार्वजनिक, शिवाजी पार्क में उनके अंतिम संस्कार का प्रबंध किया बल्कि इस कुहराम का विरोध करने वालों की जुबान पर ताले भी लगाया. भारतीय संविधान का उल्लंघन करने के लिये  उन्हें २१ तोपों के सालामी के साथ उनको अंतिम बिदाई दी. अब शिवसैनिक शिवाजी पार्क में को ठाकरे का  स्मारक बनाने की आक्रामक अंदाज़ में मांग करने लगे हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने कह भी दिया कि वे ठाकरे के स्मारक निर्माण के विरुद्ध नहीं हैं. हद तो यह कि देश के राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री  से लेकर फिल्म उद्योग की हस्तियां, तमाम विद्वान इस कट्टर फासीवादी व्यक्तित्व की महानताएं खोजकर महिमा-मंडन में लग गए और सभी समाचार चैनल शव-यात्रा का लगभग सीधा प्रशारण करते रहे. सोसल नेटवर्किंग के आभासी मंचों पर भी पर्याप्त महिमा-मंडन हो रहा है. कितने ही लोग उसे हिंदू-ह्रदय सम्राट बताकर उसके अपराधिक कृत्यों का समर्थन कर रहे हैं.  क्या यह देश में लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता के लिये खतरनाक लक्षण नहीं हैं?

पूंजीवाद एक दोगली व्यवस्था है. यह जो कहती है कभी नहीं करती और जो करती है, कभी नहीं कहती. यह सत्ता पर काबिज हुई स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के नारे के साथ, किन्तु जैसा कि इसके प्रमुख जैविक-अर्थशास्त्री, एडम स्मिथ प्रतिपादित करते हैं कि इसका अस्तित्व ज्यादा-से-ज्यादा निजी मुनाफे के सिद्धांत पर आधारित है. ज्यादा से ज्यादा मुनाफा जनकल्याण की भावना से नहीं कमाया जा सकता. इस दिगालेपन  सबसे स्पष्ट उदाहरण इसका राजनैतिक-तंत्र – संसदीय जनतन्त्र – है. दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्र में फासीवाद का इतना सम्मान?

फासीवाद को सबसे अधिक भय विचारों से लगता है. १९२६ में रोम में फासीवादी न्यायधीश ने बीसवीं शताब्दी के महान मार्क्सवादी चिन्तक, एंटोनियो ग्राम्सी के विरुद्ध सुनाये अपने फैसले में कहा था कि इस दिमाग को अगले २० साल तक काम करने से रोक दो. दिमाग को तो काम करने से मुसोलिनी की सरकार नहीं रोक पायी लेकिन कारावास की यातानाओंने  जीवन छोटा कर दिया. जेल के उनके के लेखन समाज की मार्क्सवादी व्याख्या में मौलिक योगदान हैं. फासीवादी निरंकुशता के प्रत्यक्ष गवाह रहे ग्राम्सी के अनुसार, “फासीवाद अपने को एक निर्दलीय दल के रूप में पेश करता है; सभी अभ्यर्थियों के लिये इसके दरवाजे खुले रहते हैं; दंड से बचाने का इसका वायदा, नफ़रत की भावनाओं के उद्वेग और एक धुंधले, अस्पष्ट राजनैतिक आदर्श की चाहत का एक हुजूम तैयार करता है. फासीवाद सामाजिक नैतिकता का सवाल है. यह इटली के समाज के खास तपके की बर्बर और असामाजिक मानसिक स्थिति का द्योतक है जो शिक्षा, नई परम्पराओं के ज्ञान और एक सुव्यस्थित, सुशासित राज्य में रहने के अनुभव से वंचित हैं.” नफ़रत की अपनी राजनीति के शुरुआती दिनों में जब मराठी मानुष का सबसे बड़ा दुश्मन दक्षिण भारतीय था, दूसरे नंबर पर गुजराती, ठाकरे ने स्पष्ट कहा था, “आज भारत में हिटलर की जरूरत है.” और एक और हिटलर बनने के प्रयास में आजीवन लगे रहे. दुनिया के सबसे बड़े “लोकतांत्रिक” इस राष्ट्र के महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने ठाकरे की मौत को अपूर्णीय क्षति बताया तो  गायिका लतामंगेशकर “अनाथ” महसूस करने लगीं. बिग बी अमिताभ बच्चन उसके साहस के कायल हैं.
भारत के पढ़े-लिखे तपके में फासीवादी प्रवृत्ति का स्वागत गंभीर चिंता का विषय है. यदि जनतांत्रिक ताकतें समय से न चेतीं तो विदेशी निवेश और भूमंडलीकरण के अन्य दुष्परिणामों के चलते बेरोजगारी और गरीबी की हालात और भी बदतर ही होगी. ऐसे में संभावना-विहीनता के दलदल में फंसे युवकों के एक तपके की भावनाओं को ठाकरे किस्म का फासीवादी सम्मोहन आकर्षित कर सकता है. भारतीय राज्य द्वारा इस प्रवृत्ति का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन स्थिति को और गंभीर बना दिया है.        
ईश मिश्र
१७ बी विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली ११०००७
mishraish@gmail.com




 

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