Monday, December 24, 2012

नारी की सहनशीलता

नारी की सहनशीलता उसकी ताकत नहीं कमजोरी है. परिवार नामक संस्था बनाए रखने की इकतरफा जिम्मेदारी नारी की क्यों? स्वेच्छा से औरों के लिये त्याग करना, पारंपरिक, पितृसत्तात्मक, नैतिक निष्ठाओं के चलते कष्ट सहना, प्रियजनों के सुख में सुख तलाशना;......... ये सब वान्छनीय मानवीय गुण हैं किन्तु पारस्परिकता के अभाव में में ये दुर्गुण बन जाते हैं, पुरुष-प्रधानता के वर्चस्व की विचारधारा को वैचारिक आधार प्रदान करते है और ईंधन पानी भी. जब तक ये सहती रहीं; सधती रहीं, परिवार  नाम की संस्था और पुरुष प्रधान समाज सामंजस्य से चलते रहे. जब नारी सधना, सहना बंद करने लगी; जवाब देने के साथ सावाल भी करने लगी; कुछ भी सहने के तर्क पर विचार करने लगी; हुक्म-तालीमी से इंकार करने लगी; आज़ादी और समानता पर अधिकार जताने लगी; अंतरिक्ष की उड़ान भरने लगी; .......; तो परिवार नामक संस्था में क्यों दरार आने लगी? मर्दवाद की विचारधारा के लंबरदारों को क्यों सामाजिक संत्रास मिलने लगा कि उसके पहरुए बौखलाहट में दरिंदगी करने लगे हैं? आज़ादी तथा गैरत की ज़िंदगी चाहती हो तो सहने से इंकार कर दो, हर रवायत पर सावाल करो नारी! सहने की संस्कृति से विद्रोह करो; सहो मत, प्रतिकार करो. दुश्मन का ताकतवर होने का मिथ और गुमाव तभी तक रहता है जब तक पलटवार न करो. कलम का पलटवार ज्यादा करगर होता है लेकिन चांटे का भी जवाब देते रहना है -- चांटे, लात और दांत से. 

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