Saturday, December 15, 2012

विदागीत


 विदागीत 
ईश मिश्र 

वैसे भी किसी खुशफहमी में नहीं था 
पर एक तिरता हुआ एहसास 
आता था काफी करीब तन्हाइयों में अक्सर 
छू जाता था अन्तस्तल की गहराइयों को
मिलता था सागार का आभास

पगडंडियों पर थी चलने की आदत 
दिलो-दिमाग में भर जाती थी जिसकी गंध
 नहीं था राजपथों का तजुर्बा 
चलते थे जिनपर भारी भरकम इक्के-दुक्के दौलतमंद  
छोड़ना गवाह इन हादसों के है नहीं राजपथों को पसंद 

पोखर में नहाते थे सागर का भान न था
मौजों की नीयत का कोइ ज्ञान न था
नहीं था गुमान होने का माझी 
फिर भी तेरे नाम उतार दिया था  कश्ती

लहरों के साथ चढता- उतरता, डूबता-उतरता रहा
उपमा सिसिफस की इस तरह सार्थक करता रहा 
वह रात जो वाकई एक रात थी  विदा हुई थी यादों की बरात  जब 
फ्रायड की हवा के एक हलके झोंके में  की उड़ गया था तुम्हारा पल्लू तब 

तो इसे विदागीत समझो फिर भी  अगर उस राह दिखूं
समझना पुरानी यादें यूँ ही नहीं छूटतीं
और अतीत भी कोइ गर्द नहीं 
झाड दिया जाये जिसे एक उडती कविता में 

पर एक बुनियादी फर्क होगा ऐसा अब करने में 
और एक खास बात जो तुमसर मतलब रखती है
ऐसा अब गंजेड़ी सा नशे में ही करूँगा 
नशा कुछ क्षणों का होता है
 ज़िंदगी काफी अछूती रह जाती है
उन अछूते क्षणों को ही सच मानना 
भूल जाना मेरे उन्मादों और विकृतियों को
जो मां के दूध से चल कर साथ रहे है अब तक 
और  जो मेरी आदमियत के चश्मदीद गवाह है
                                                                     और जिनपर मुझे नाज़ है                                                                                                                        [Saturday, March20, 2004]

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