Tuesday, December 25, 2012

बलात्कारी सोच

बलात्कारियों को फांसी की मांग नहीं की जा रही है, नारों में अतिरंजना होती है. बलात्कारियों को क़ानून-सम्मत सज़ा एक पहलू है, हमला इसके श्रोत- नारी को जिस्म और उसके बलात्कार को मान्-मर्दन  समझने वाली मर्दवादी विचारधा-- पर होना चाहिए जो बलात्कारी मानसिकता को जन्म देती है और बलत्कृत को ही  कलंकित मानती है. अखबार वाले बदनामी का डर दिखाकर उसका "बदला हुआ नाम" बताते है, बलात्कारी को बदनामी से बचाने की जरूरत नहीं होती!. स्वस्फूर्त उमड़े संचित युवा-उमंगों के मगासागर ने इस घटना की आड़ में निहित स्वार्थों की राजनीति करने वालों को भी पीछे धकेल दिया. जो काम शर्मिला के १२ साल के अमरण अनसन न् कर सका; सोनवी सोरी की जेल की यातना की चीख न् कर सकी वह काम युवा उमंगों के स्वस्फूर्त विरोध ने कर दिया. संसद में जनप्रतिनिधियों को और प्रधानमंत्री/गृहमंत्री को बयान देना पड़ा, उनके बयान प्रकारांतर से भले ही नाक़रीविरोधी विचारधारा को ही पोषित करने वाले ही क्यों न हों? प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि महिलाओं की सुरक्षा का बेहतर इंतज़ाम किया जाएगा, अभी तक पता नहीं किसने रोक रहा था?  यह स्वस्फूर्त, अनियंत्रित किन्तु स्व-अनुशासित युवा प्रतिरोध नेतृत्व-विहीन है और लक्ष्य और दुश्मन की स्पष्टता नहीं नहीं है किन्तु यह आने वाले तूफ़ान का पूर्वाभास, एक नए क्रांतिकारी छात्र-आंदोलन की बुनियाद का संकेत है. क्षणिक उदगार कह कर इसका सरलीकरण नहीं होना चाहिए. यह संचित आक्रोश का उदगार है, जरूरत है दिशा और लक्ष्य की स्पष्टता की इनकी तलाश में हम मदद करें.

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