इलाहाबाद के एक मंच पर एक वैज्ञानिक मित्र ने यार्क विश्विद्यालय में कार्य करते हुए भूत देखा था. किसी को उन्होंने लिफ्ट दिया था उतरते समय उन्होंने देखा कि जनश्रुतियों में भूतों के विवरण को पुष्ट करते हुए उसके पाँव उलटे थे. तब से उन्होंने रात को प्रयोगशाला में काम बंद कर दिया था.उस पर मेरा कमेन्ट:
धर्मेन्द्र, कुछ ग़लतफ़हमी हुई होगी. भूतों यानि आत्माओं का शरीरवान होना is contradiction in terms. नदी के बीहड़ों के हर गाँव की तरह मेरे गाँव में अनगिनत भूत-प्रेत हैं. उनमें से कई हमलोगों के पूर्वजों के भूत हैं. सबके बारे में कहानियां प्रचलित हैं. कई लोग आँखों देखी घटनाओं का भी जिक्र करते हैं. बचपन में इनमे से किसी को गाली देता था तो कई लड़के कहते, "अबे हमारे पूर्वज है" मेरा जवाब होता तो ढंग से रहें, लोगों को डराते क्यों हैं? पहली और अंतिम बार मैंने भी एक भूत देखा था.
९-१० वर्ष के बीच की उम्र (limit tending to 10). मिडिल स्कूल गाँव से ७-८ किमी दूर था और छठी कक्षा में गाँव का मैं अकेला विद्यार्थी. सातवीं में कोई नहीं. आठवी में ३ लोग थे लेकिन बोर्ड की परिक्षा जल्दी होने के नाते अप्रैल-मई में मैं अकेला जाता था. १० से ४ बजे का स्कूल गर्मियों में ७से का हो जाता था. घर से सूर्योदय से ब्पहले निकलना पड़ता था. एक दिन स्कूल से आ रहा था. मई की जलजला धूप (ऐसी धूप अब नहीं दिखती). मैं अपने गाँव से पहले वाले गाँव (लगभग डेढ़ किमी) के बहार की बाग से बाहर निकला तो करीब आधे किमी दूर तालाब के किनारे जलजला धूप की लालिमा में एक "भूत" दिखा. फिर क्या था? हनुमानचालीसा कंठस्थ था. ९० अंश पर मुडी हिलती-डुलती अजीब सी एक आकृति दिखी. भूत ही हो सकता था. तालाब के किनारे पेड़ों पर कई थे. तभी भूताकार आकृति गायब हो गयी. अब तो उसके भूत होने पर संदेह ही नहीं रहा. जब तालाब के किनारे पहुंचा तो देखा गाँव के ही एक पंडित जी तालाब की तलहटी से कान से जनेऊ उतारते हुए चले आ रहे थे. सूरज की किरणों की लालिमा में हिलती-दुलती दिखती कुर्सी की मुद्रा में सौच करते पंडित जी आकृति भूत लगी थी. क्या सोचता एक ९-१० साल का दूर-दराज के एक गाँव का कर्म-कांडी ब्राह्मण बालक भूतों के अनुभव के बारे में, यदि पंडित जी तालाब से "पानी पाकर" लौटते न दिखते?
२
मेरे पास कई रोचक कहानियां हैं भूत-चुड़ैल से एकाधिक तकरार के अनुभव वाले लोगों के. कभी वक़्त मिला तो बताएँगे. मेरे पिता जी बहुत गप्पें हांकते थे और कई भूतों और चुड़ैलों से अपनी काल्पनिक मुठभेड़ों के बारे में. मेरे पूछने पर कि अब वे क्यों नहीं मिलते, कहते अभी सब अंतर्ध्यान हो गये हैं. अब उस जमाने में पिता से यह कहने की हिम्मत नहीं होती थी कि आप झूठ बोल रहे हैं. हमारे गाँव में दर्जनों भूतो-चुड़ैलों के निरंतर संपर्क में रहने वाली एक "अइया" थीं. उनसे मैंने पूंचा मुझे क्यों नहीं डराते सब. उन्होंने कहा जो मानेगा ही नहीं उसे कैसे डराएगा. मैंने कहा कितना आसान है, डरना बंद कर दीजिए. चलिए एक सबसे रोचक कहानी बताता हूँ. मेरे गाँव में एक "तांत्रिक" थे, राम अजोर भाई. उम्र में तो पिताजी से बड़े थे लेकिन गाँव के पद में भाई लगते थे. पत्नी मर गईं थीं, बच्चे ननिहाल में रहते थे. अकेले रोज भौरी-भांटा लगा ते थे. बच्चों से उनकी बहुत दोस्ती थी. हमारी ज्यादातर शामें उनके साथ सत्संग में बीतती थीं. अक्सर नदी के इर्द गिर्द. अक्सर हम नाव में उनके दल के साथ २-३ किमी उल्टी धारा में जाते-थे फिर गाते-बजाते; किस्से कहानियां सुने वापस आते थे. राम अजोर भाए का रोज की खुराक भांग का एक बड़ा गोला था. सरल जीवन और व्यक्तित्व, तंत्रिकता को छोड़ कर. उनकी जजमानी दूर-दराज तक थे- आगरा, मथुरा, गुजरात, महाराष्ट्र... १९६२-६५ (चीन की लडाई के बाद और पकिस्तान की लड़ाई के पहले) के दौरान कभी की बात है. नदी उसपार के गाँव के एक बड़े जमींदार के घर में एक ब्रह्म (ब्राह्मण का भूत) घुस गया. हम छोटे-छोटे बच्चे उत्सुकता से कहानियां सुनते थे -- कभी खाट में अपने आप आग लग जाने की तो कभी चूल्हे पर बर्तन उछलने की. जमींदार साहब राम अजोर भाई के पास आये. और कहानी को छोटा करते हुए सार-संक्षेप यह कि राम अजोर भाई ने पूजा-वगैरह का तमाम ताम-झाम करके सबके सामने से लाल कपड़े के पिंड में ब्रह्म को घर से बाहर निकाल दिया. तब से बाबू साहब के यहाँ भूत-जन्य घटनाएँ बंद हो गयीं. देखा सब्मने दूर से लेकिन कोई नजदीक नहीं आया क्योंकि उन्होंने कह दिया था बहुत भयानक ब्रह्म है किसी तरह निकाल पाए हैं.अब जो आगे पडेगा उसपर चढ जाएगा और फिर निकालना असंभव होगा. एक शाम की नौका-विहार में भांग के प्रभाव में बताया कि जिस भूत को लोगों ने निकलते देखा वह लाल कपड़े में लिप्त कछुआ था. कछुआ जमीं में स्पंदन की उलटी दिशा में चलता है. आगे आगे कछुआ पीठ पर घी का दिया, पीछे पीछे राम अजोर भाई. हवेली के पीछे कछुआ बांस की झाड में और लाल कपड़ा उनके झोले में. इस घटना ने राम अजोर भाई की तान्त्रिकता में चार-चाँद लगा दिया था.
३
Virendra Pratap Singh आपके इस गाने के चक्कर में भूत का जिक्र करके धर्मेन्द्र ने फंसा दिया. हमारे इलाके में एक बहुत सम्मानित भूत हैं. छितुनिया बाबा. ख् जाता है कि एक परोपकारी और अत्यंत लोकप्रिय जमींदार थे जिनके भाइयों ने धोखे से उनकी ह्त्या करवा दिया और उनकी आत्मा धान के खेतों के बीच इकलौते छीतुन के विशाल वृक्ष में समा गयी. हर कोई उधर से उनको नमन करके निकलता था. छितुनिया बाबा का स्पेसलाइजेसन रास्ता बुलाने में था. बहुत सी कहानियां थीं फला व्यापारी रास्ता भूल कर अपने खच्चर के साथ २०-२५ मील दूर चला गया. अभी भी मेरे गाँव में कई लोग हैं जिन्हें छितुनिया बाबा ने भैंसा या कुत्ता या कुछ और बन कर ३-४ किमी के निर्जन टापू का रास्ता पार कराया. मेरे गाँव से नजदीकी पैसेंजर-लोकल गाड़ियों का स्टेसन ७ मील दूर था. छितुनिया बाबा के पहले वाले गाँव तक हर हफ्ते घर जाते समय और भी सहयात्री हॉट थे. वहाँ मैं अकेला. मेरे गाँव और छितुनिया बाबा के बीच में आमों ५ पेड़ की बैग और एक साधू की कुटी थी. मैं छितुनिया बाबा को ललकार कर कहता था कि वो सामने पञ्चपेड़वा दिख रहा है भुल्वाओ रास्ता ...... और वह कभी मुझे रास्ता नहीं भुला पाया.
धर्मेन्द्र, कुछ ग़लतफ़हमी हुई होगी. भूतों यानि आत्माओं का शरीरवान होना is contradiction in terms. नदी के बीहड़ों के हर गाँव की तरह मेरे गाँव में अनगिनत भूत-प्रेत हैं. उनमें से कई हमलोगों के पूर्वजों के भूत हैं. सबके बारे में कहानियां प्रचलित हैं. कई लोग आँखों देखी घटनाओं का भी जिक्र करते हैं. बचपन में इनमे से किसी को गाली देता था तो कई लड़के कहते, "अबे हमारे पूर्वज है" मेरा जवाब होता तो ढंग से रहें, लोगों को डराते क्यों हैं? पहली और अंतिम बार मैंने भी एक भूत देखा था.
९-१० वर्ष के बीच की उम्र (limit tending to 10). मिडिल स्कूल गाँव से ७-८ किमी दूर था और छठी कक्षा में गाँव का मैं अकेला विद्यार्थी. सातवीं में कोई नहीं. आठवी में ३ लोग थे लेकिन बोर्ड की परिक्षा जल्दी होने के नाते अप्रैल-मई में मैं अकेला जाता था. १० से ४ बजे का स्कूल गर्मियों में ७से का हो जाता था. घर से सूर्योदय से ब्पहले निकलना पड़ता था. एक दिन स्कूल से आ रहा था. मई की जलजला धूप (ऐसी धूप अब नहीं दिखती). मैं अपने गाँव से पहले वाले गाँव (लगभग डेढ़ किमी) के बहार की बाग से बाहर निकला तो करीब आधे किमी दूर तालाब के किनारे जलजला धूप की लालिमा में एक "भूत" दिखा. फिर क्या था? हनुमानचालीसा कंठस्थ था. ९० अंश पर मुडी हिलती-डुलती अजीब सी एक आकृति दिखी. भूत ही हो सकता था. तालाब के किनारे पेड़ों पर कई थे. तभी भूताकार आकृति गायब हो गयी. अब तो उसके भूत होने पर संदेह ही नहीं रहा. जब तालाब के किनारे पहुंचा तो देखा गाँव के ही एक पंडित जी तालाब की तलहटी से कान से जनेऊ उतारते हुए चले आ रहे थे. सूरज की किरणों की लालिमा में हिलती-दुलती दिखती कुर्सी की मुद्रा में सौच करते पंडित जी आकृति भूत लगी थी. क्या सोचता एक ९-१० साल का दूर-दराज के एक गाँव का कर्म-कांडी ब्राह्मण बालक भूतों के अनुभव के बारे में, यदि पंडित जी तालाब से "पानी पाकर" लौटते न दिखते?
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मेरे पास कई रोचक कहानियां हैं भूत-चुड़ैल से एकाधिक तकरार के अनुभव वाले लोगों के. कभी वक़्त मिला तो बताएँगे. मेरे पिता जी बहुत गप्पें हांकते थे और कई भूतों और चुड़ैलों से अपनी काल्पनिक मुठभेड़ों के बारे में. मेरे पूछने पर कि अब वे क्यों नहीं मिलते, कहते अभी सब अंतर्ध्यान हो गये हैं. अब उस जमाने में पिता से यह कहने की हिम्मत नहीं होती थी कि आप झूठ बोल रहे हैं. हमारे गाँव में दर्जनों भूतो-चुड़ैलों के निरंतर संपर्क में रहने वाली एक "अइया" थीं. उनसे मैंने पूंचा मुझे क्यों नहीं डराते सब. उन्होंने कहा जो मानेगा ही नहीं उसे कैसे डराएगा. मैंने कहा कितना आसान है, डरना बंद कर दीजिए. चलिए एक सबसे रोचक कहानी बताता हूँ. मेरे गाँव में एक "तांत्रिक" थे, राम अजोर भाई. उम्र में तो पिताजी से बड़े थे लेकिन गाँव के पद में भाई लगते थे. पत्नी मर गईं थीं, बच्चे ननिहाल में रहते थे. अकेले रोज भौरी-भांटा लगा ते थे. बच्चों से उनकी बहुत दोस्ती थी. हमारी ज्यादातर शामें उनके साथ सत्संग में बीतती थीं. अक्सर नदी के इर्द गिर्द. अक्सर हम नाव में उनके दल के साथ २-३ किमी उल्टी धारा में जाते-थे फिर गाते-बजाते; किस्से कहानियां सुने वापस आते थे. राम अजोर भाए का रोज की खुराक भांग का एक बड़ा गोला था. सरल जीवन और व्यक्तित्व, तंत्रिकता को छोड़ कर. उनकी जजमानी दूर-दराज तक थे- आगरा, मथुरा, गुजरात, महाराष्ट्र... १९६२-६५ (चीन की लडाई के बाद और पकिस्तान की लड़ाई के पहले) के दौरान कभी की बात है. नदी उसपार के गाँव के एक बड़े जमींदार के घर में एक ब्रह्म (ब्राह्मण का भूत) घुस गया. हम छोटे-छोटे बच्चे उत्सुकता से कहानियां सुनते थे -- कभी खाट में अपने आप आग लग जाने की तो कभी चूल्हे पर बर्तन उछलने की. जमींदार साहब राम अजोर भाई के पास आये. और कहानी को छोटा करते हुए सार-संक्षेप यह कि राम अजोर भाई ने पूजा-वगैरह का तमाम ताम-झाम करके सबके सामने से लाल कपड़े के पिंड में ब्रह्म को घर से बाहर निकाल दिया. तब से बाबू साहब के यहाँ भूत-जन्य घटनाएँ बंद हो गयीं. देखा सब्मने दूर से लेकिन कोई नजदीक नहीं आया क्योंकि उन्होंने कह दिया था बहुत भयानक ब्रह्म है किसी तरह निकाल पाए हैं.अब जो आगे पडेगा उसपर चढ जाएगा और फिर निकालना असंभव होगा. एक शाम की नौका-विहार में भांग के प्रभाव में बताया कि जिस भूत को लोगों ने निकलते देखा वह लाल कपड़े में लिप्त कछुआ था. कछुआ जमीं में स्पंदन की उलटी दिशा में चलता है. आगे आगे कछुआ पीठ पर घी का दिया, पीछे पीछे राम अजोर भाई. हवेली के पीछे कछुआ बांस की झाड में और लाल कपड़ा उनके झोले में. इस घटना ने राम अजोर भाई की तान्त्रिकता में चार-चाँद लगा दिया था.
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Virendra Pratap Singh आपके इस गाने के चक्कर में भूत का जिक्र करके धर्मेन्द्र ने फंसा दिया. हमारे इलाके में एक बहुत सम्मानित भूत हैं. छितुनिया बाबा. ख् जाता है कि एक परोपकारी और अत्यंत लोकप्रिय जमींदार थे जिनके भाइयों ने धोखे से उनकी ह्त्या करवा दिया और उनकी आत्मा धान के खेतों के बीच इकलौते छीतुन के विशाल वृक्ष में समा गयी. हर कोई उधर से उनको नमन करके निकलता था. छितुनिया बाबा का स्पेसलाइजेसन रास्ता बुलाने में था. बहुत सी कहानियां थीं फला व्यापारी रास्ता भूल कर अपने खच्चर के साथ २०-२५ मील दूर चला गया. अभी भी मेरे गाँव में कई लोग हैं जिन्हें छितुनिया बाबा ने भैंसा या कुत्ता या कुछ और बन कर ३-४ किमी के निर्जन टापू का रास्ता पार कराया. मेरे गाँव से नजदीकी पैसेंजर-लोकल गाड़ियों का स्टेसन ७ मील दूर था. छितुनिया बाबा के पहले वाले गाँव तक हर हफ्ते घर जाते समय और भी सहयात्री हॉट थे. वहाँ मैं अकेला. मेरे गाँव और छितुनिया बाबा के बीच में आमों ५ पेड़ की बैग और एक साधू की कुटी थी. मैं छितुनिया बाबा को ललकार कर कहता था कि वो सामने पञ्चपेड़वा दिख रहा है भुल्वाओ रास्ता ...... और वह कभी मुझे रास्ता नहीं भुला पाया.
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