मतलब से मेहरबान
ईश मिश्र
ईश मिश्र
कितने
अभागे हैं वे लोग
जो
मतलब से मेहरबां होते हैं
यादों
के मेले में
बहुत
बौने से दिखते हैं
खो
देते हैं वजूद
भीड़
में खप जाते हैं
इन
यादों की जगह है
रद्दी
की टोकरी यादों की
और
हर अगली उड़ान हो सबूत
अंतरिक्ष
की ऊंचाई के इरादों की
तभी
होगा मतलबी लोगों को
इस
बात का एहसास
टुच्चे
फायदों के लिए
भारी
घाटे का आभास
लेकिन
मन में एक गंभीर बात
इससे
भी पहले आती है
मेहरबार्नी
की किसी को किसी की
जरूरत
ही क्यों होती है?
क्यों
करते हैं हम
कुछ
लोगों से सहानुभूति?
गढना
है एक ऐसी संस्कृति
हो
जिसमे सार्वभौमिक आपसी समानुभूति.
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