Tuesday, September 11, 2012

मतलब से मेहरबान


मतलब से मेहरबान
ईश मिश्र 

कितने अभागे हैं वे लोग
जो मतलब से मेहरबां होते हैं
यादों के मेले में
बहुत बौने से दिखते हैं
खो देते हैं वजूद
भीड़ में खप जाते हैं
इन यादों की जगह है
रद्दी की टोकरी यादों की
और हर अगली उड़ान हो सबूत
अंतरिक्ष की ऊंचाई के इरादों की
तभी होगा मतलबी लोगों को
इस बात का एहसास
टुच्चे फायदों के लिए
भारी घाटे का आभास
लेकिन मन में एक गंभीर बात
इससे भी पहले आती है
मेहरबार्नी की किसी को किसी की
जरूरत ही क्यों होती है?
क्यों करते हैं हम
कुछ लोगों से सहानुभूति?
गढना है एक ऐसी संस्कृति
हो जिसमे सार्वभौमिक आपसी समानुभूति.

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