Shailendra Pratap Singh मित्र मालुम होता तो पूंछता क्यों? मै कोई भी प्रश्न परीक्षा के लिए नहीं किन्तु जानकारी के लिए ही पूंछता हूँ. मैंने भी १५-१६ साल की उम्र में एक घटना के सन्दर्भ में पहली बार जब यह सवाल मन में आया, तभे से बहुत कर्मकांडी विद्वानों से पूँछ चुका लेकिन कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला. हुआ यों कि मैं ग्यारहवीं कक्षा की परिक्षा देकर घर आया था. गाँव में मैं अपनी बाग के ट्यूबवेल के मदाहे में ही ज्यादा समय बिताता था (गुलशन नंदा, कुश्वाहाकांत, इब्ने शाफे बी.ए. आदि [ आदि इसलिए कि और एक दो जासूसी उपन्यासकारों का नाम भूल रहा हूँ] और बीच-बीच में गोर्की और प्रेमचंद, अज्ञेय, निर्मल वर्मा ) को पढते हुए). गाँव के सभी जातियों के ज्यादातर बड़े-बूढ़े मुझे बहुत प्यार करते थे. मेरे पड़ोसी के "आदमी" कुबेर दादा एका-एक अपेक्षतया "कुबेर" महसूस कर रहे थे. बेटे को इलाहाबाद बैंक में इलाहाबाद में चपरासी की नौकरी मिल गई थी. नया घर बनवाया था(कच्चा ही सही). मैं कुश्वाहाकांत के लाल रेखा पढ़ रहा था. तभी देखा कुबेर दादा इतने धीरे से पालागी बच्चा कह कर सामने की चौकी पर ग़मगीन भाव में बैठे कि मुझे पटा ही नहीं चला. देखा तो कुबेर दादा बिलकुल रुआंसे बैठे थे. मैंने पूंछा तो जैसे फांसी की सजा वाला आख़िरी खाहिस बताता है वैसे ही कुबेर दादा ने अपने नए घर पर सत्यनारायण की कथा सुनने की खाहिश जाहिर किया. पुरोहित ने घर कथा कहने से मन कर दिया.दलितों को करियादेव या काली माई के थान्हे कथा सुनना होता था और उनके माल से प्रसाद पंडित जी के घर बनता था. तब तक कर्मकांडों से मेरा मोहभंग शुरू हो गया था. लेकिन कुबेर दादा की व्यथा ने मुझे कर्मकांड पर मजबूर कर दिया. मैंने उन्हें विशवास में लेकर बताया कि मुझे भी कथा बांचना आता है और कल वे तैयारी करें. मेरे खानदान के एकमात्र पुरोहित जिनकी जजमानी व्यापक थी (जिनके कुकृत्यों की कहानी कभी मौक़ा मिलेगा तो सुनाऊंगा), छांगुर दाबाबा (उनका नाम भूल गया छ उँगलियों के चलते उन्हें हम बच्चे छांगुर बाबा कहते थे), उनका पोटा मेरा दोस्त था. उनके घर में सत्यनारायण कथा की असंख्य पोथियाँ थी. उससे एक लिया और किसी को कानो-कां खबर लगे बिना व अगले दिन दलितों की बस्ती में कुबेर दादा के यहाँ कथा कहने पहुँच गया. स्वाहा वाले मन्त्र कम पड़ रहे थे. पंडित जी लोग आधे शब्द तो मौन में ही बोलते हैं तो जो भी मन में आया स्वाहा -- जैसे किताब-कापी स्वाहा; घर्बैल स्वाहा; खेती-बारी व्स्वाहा .......... कथा खतम होने के बाद मुझे समझ में ही नहीं आया कि कथा क्या थी? यह तो सिर्फ मंतव्य था. उसके बाद १९७० में आजमगढ़ के एक दूर-दराज़ के गाँव में मेरी क्या दशा हुई होगी, आप समझ सकते हैं. छांगुर बाबा ने कहा, "यज्ञोपवीत-विहीन ब्राह्मण को कथा अह्ने का अधिकार नहीं है". मैंने कहा "अब तो कह दिया, लेकिन बताइये कथा क्या है? ...................यह घटना मेरी छवि के सन्दर्भ में वाटरलू साबित हुई ब्राह्मण बुजुर्गों के बीच मेरी अच्छे बच्चे की छवि पलट गयी.
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