Thursday, September 27, 2012

लल्ला पुराण ४४

विविध और बहुल वृत्तांतो से भरपूर महाभारत एक कालजयी रचना है जिसकी कथा-वस्तु पर आज तक लिखा जा रहा है. मिथकीय महाकाव्य से सामाजिक इतिहास समझने के लिये उसे demystify करना पड़ता है. प्राचीन काल की समृद्ध भौतिकवादी और आध्यात्मिक  दार्शनिक परम्पराओं में राजनैतिक सिद्धांत का अभाव है. विचार वस्तु-जन्य होते हैं, इसका उलटा नहीं होता. ऐसा इसलिए है कि सातवीं-छठी शताब्दी ईशापूर्व यानि लगभग बुद्ध के काल तक राज्य एक संस्था के रूप में जड़ें नहीं जमा सका था. तमाम मामलों में आज भी प्रासंगिक कौटिल्य के अर्थशास्त्र से पहले राज्य की उत्पत्ति और कार्यों का सिद्धांत बौद्ध-संकलनों --'अनुगत्तारानिकाय' और 'दीघनिकाय' में मिलता है. यह बात यह रेखांकित करने के लिये कह रहा हूँ कि महाभारत के शांतिपर्व में राज्य के सिद्धांत 'अर्थशास्त्र' से पहले का नहीं हैं. महाभारत उस संक्रमणकालीन समय की कहानियों का काव्यात्मक संकलन है जब ऋग्वैदिक कुटुंब व्यवस्था टूट रही थी और युद्ध के जरिये केंद्रीकृत राज्यों की स्थापना हो रही थी. पुरुष-प्रधान परिवार और वर्णाश्रम आधारित श्रम-विभाजन जड़ें जमा रहा था. भीष्म, पांडवों और कौरवों को क्रमशः गंगा पुत्र, कुंती-पुत्र और गांधारी पुत्र कहा जाता है. विवाह-पूर्व और विवाहेतर प्रेम और  प्रणय प्रतिबंधों और वर्जनाओं की परिधि में लाये जा रहे थे. अन्तःकुतुम्बीय और अंतर-कुतुम्बीय सम्बन्ध गड्ड-मड्ड थे. लोहिया जी ने द्रौपदी को कृष्ण की प्रेमिका बताया तो कुछ आधार होगा. महाभारत का मेरा विशद अध्ययन नहीं है, लेकिन कृष्ण जैसा दिल-फेंक आदमी द्रौपदी से भी प्रेम करते रहे हों, तो आश्चर्य की बात नहीं है. 

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