Thursday, September 20, 2012

लल्ला पुराण ४३

आभासी दुनिया के एक आभासी मंच पर विवाद को लेकर एक आभासी मित्र को पत्र: मामला था  के गाली-गलौच की भाषा बोलने-समझने वाले मंच कुछ सदस्यों को ब्लाक कर दिया था. कई सदस्यों ने उन्हें अन्ब्लाक करने का आग्रह किया. अन्ब्लाक होते ही वे अपनी भाषा बोलने लगे और आवेश मे मैं भी उन्ही की भाषा में जवाब देने लगा. जिसका मुझे इतना अफशोस हुआ कि अपने ऊपर शर्म आने आगी और मैंने वह मंच छोड़ दिया. मंच के एक एडमिन को साजिस का हिस्सा समझ कल एक कटु मसेज लिखा लेकिन आज मुझे अपनी गलती का एहसास  हुआ कि उन मित्र की कोई रादतन भूमिका नहीं थी.


मित्र शैलेन्द्र, आज का दिन मेरा व्यस्त होता है, लेकिन ५ बजे से ही आपका मेसेजबाक्स खोल कर बैठा हूँ और अपने उपरोक्त वाक्यों को पढ़ने के बाद क्या लिखूं, समझ में नहीं आ रहा है. जब भी मुझे लगता कि मेरी किसी बात से किसी को तकलीफ पहुँची होगी तो मैं बहुत व्यथित हो जाता हूँ. मैं जानते हुए भी कि अति सर्वत्रैव वर्जयेत, अतिवादी हूँ, सम्वेदंशेलता के मामले में भी. सफाई बाद में पहले आवेश में उपरोक्त उदगार के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ. आपको मैं सिर्फ इसलिए नहीं पसंद करता कि आप मित्र नृपेन्द्र के भाई हैं, इसका पता तो मुझे बाद में चला, बल्कि इस लिये कि आप अंतरात्मा को जीवंत बनाए रखते हुए एक चिंतनशील इंसान हैं. आपको hurt करने का अफशोस है. दर-असल कल मैं बहुत disturbed था. परसों की घटनाओं और धीरेन्द्र जी से लंबी चैट  से मिली नयी जानकारियों से लोगों की विध्वंशक सोच को सोचते हुए मैं आवेश में उपरोक्त बातें कह गया, पुनः क्षमाप्रार्थी हूँ. आवेश में इंसान दिमाग की बजाय दिल से सोचता है, सोचना दिल का काम है नाहीं. मित्र नृपेन्द्र एक भले इंसान हैं उनके बारे में टिप्पणी के लिये फोन पर माफी मांग लूँगा. कल उनकी कमर में दर्द था. मित्र मैं परेशान इस लिये नहीं था कि किसने मेर बारे में क्या कहा. परेशान इसलिए था कि उनके उकसावे में मैंने क्यों संयम खो दिया. इसी डर से मैंने इन लोगों को ब्लाक किया था. मुझे धीरेन्द्र जी से चैट और वीपी सर से फोन वार्ता से पता चला कि कई दिनों से मैं मुद्दा बना हुआ था, जिसके लिये क्रोध की जगह आभार-भाव आना चाहिए था. लेकिन एक साधारण इंसान होने के नाते मुझे भी कभी कभी क्रोध आ ही जाता है. और क्रोध सदा ही आत्मघाती होता है. चलिए यह चिट्ठी यहीं खत्म करता हूँ. हाँ एक बात और. मैंने क्यों कुछ लोगों को ब्लाक किया था? मैं बहुत धैर्यवान शिक्षक हूँ और theory of changeability प्रबल समर्थक. लेकिन अगर कुछ विद्यार्थी यह सोच कर आयें कि न् खेलेंगे न् खेलने देंगे खेल ही बिगाड़ेंगे तो बहुमत के हित में उत्पाती अल्पमत के प्रति कठोर होने की पीड़ा वांछनीय हो जाती है. ऐसे विद्यार्थियों से वास्तविक दुनिया में मैं अलग ढंग से निपटता हूँ. आप की संयोग से अगर २००६ के बाद हिन्दू कालेज हास्टल में रहे किसी से मुलाक़ात हो जाए तो उसकी बातें किम्वदंतिया लगेंगीं. लम्पटता की असीम रुच और सम्बावनाओं वाले के बच्चे शरीफ इंसान बन गए और क्रग्यता ज्ञापन करते हैं.लेकिन आभासी दुनिया में ऐसे विद्यार्थी जो क्लास में पहुँचते ही शिक्षक से गाली गलौच करने लगें, उन्हें विद्यार्थियों के बहुमत के हित में कक्षा से निकालना ही उचित होता है. इसीलिये इन विद्वानों को ब्लाक किया था. भावनाओं में आकर इन्हें अन्ब्लाक करने आ अफशोस है और इनसे बचने के लिये इन्हें दुबारा ब्लाक करने की बजाय कुटुंब छोड़ने का भी अफशोस है. दुनिया गोत्र-कुटुंब के बाहर भी  है. हम आभास और संयोग हुआ तो वास्तविक दुनिया में  मित्र बने रहेंगे. मेरी बातों से कुटुंब में जिसका भी दिल दुखा हो, पात्रता/अपात्रता के बावजूद, उससे मेरे तरफ से दुःख जाहिर कर दीजिए और मैंने मेरे साथ बदतमीजी करने वालों को तभी माफ कर दिया. आप के कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह गए हैं, फुर्सत मिली तो अपने वाल पर पोस्ट कर दूंगा. सस्नेह.   

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