Saturday, September 15, 2012

लल्ला पुराण ३९ :मानवता और नैतिकता




मानवता और नैतिकता
इस पेंचीदे विषय पर बोलना खतरे से खाली नहीं है. जब तक यहाँ पहुंचा तब तक काफी विद्वतापूर्ण विचार रखे जा चुके हैं. दोनों ही अवधारणाएं देश-काल-सन्दर्भ-वर्ग सापेक्ष हैं और जीवन विधा में बदलाव के अनुसार बदलते रहते हैं. आदिमकाल में जब सीमित साझे संसाधनों पर साझे श्रम से आजीविका चलती थी तब मानवता और नैतिकता के मानदण्ड थे – समानता और कटुम्बी एकता और भाईचारा. पहली और सर्वाधिक अमानवीय, सभ्यता --दास-प्रथा – में नैतिकता और मानवता के मानदण्ड बदल गए और सवामियों और दासों के लिए अलग अलग परिभाषाएँ गढी गयीं. अरस्तू ने असमानता को प्राकृतिक बताते हुए स्वाभाविक शासक-शासित युगल -– मनुष्य-जानवर;पुरुष-स्त्री; मालिक-गुलाम का दर्शन गढा. सामंती युग में इनके मानदण्ड और थे और पूंजीवाद में संसाधनों पर निजी स्वामित्व ही नैतिकता का मानदण्ड है. मेरे बचपन में गाँव के एक ज़मींदार ने एक बाजार में घर बनवाया और एक कपड़े की दूकान खोलकर वपने एक बेरोजगार बेटे को बैठा दिया. इसे वर्णाश्रमी सामंतवादी मूल्यों के तहत इतना अनैतिक माना गया किचारों तरफ बाबू साहब की थू-थू होने लगी और अंत में उन्होंने दूकान बंद कर दिया. आज तो जूते के व्यापार में ज्यादा मुनाफा हो तो पंडित जी किसी को भी जूता पहनाने में नहीं हिचकेंगे.  मानवता की परिभाषा और उसके नैतक नियम वर्चस्वशाली विचारधारा से वर्चस्वशाली वर्ग के हित में निर्धारित होते हैं. १९६७-६८ में १३ साल के ब्राह्मण बालक द्वारा जनेऊ तोडने की घटना को इतना अनैतिक माना गया कि परसाई जी की भाषा में जिसने भी सुन, थूका. एक शिक्षक की नैतिकता विविद्यार्थियों की अन्तर्निहित प्रतिभा और विद्रोही तेवर को निखारना है लेकिन ज्यादातर शिक्षक बच्चों को लकीर का फ़कीर बनाना ही नैतिक मानते हैं.     

  हम नैतिकता और मार्यादा के नाम पर बच्चों के दिमाग और अन्वेषण की आकांक्षा को कुंद करते हैं. कई बच्चे तथाकथित मर्यादाओं के दबाव के बावजूद वर्जनाओं को तोड़ते हुए ऊंची उड़ान भरते हैं. अठारहवीं शताब्दी में रूसो को अपने उपन्यास एमीले में चच नियन्त्रित शिक्षा की निंदा किया तो उन्हें जान बचाने के लिए डर-डर भटकना पड़ा था. उन पादरियों और सामंतों-शासकों को कोई नहीं जानता रूसो आज भी जनशक्ति तथा क्रान्ति की वांछनीयता और संभावना के प्रेरणाश्रोत हैं. स्कूलों में सुबह की प्रार्थना बंद होनी चाहिए. मैं जब जे.एन.यू. मरण शोध-छात्र था तब दिल्ली पब्लिक स्कूल में गणित पढाता था. मैं  morning assembly में न जाकर स्कूल की "मर्यादा" का उल्लंघन करता था. कुछ वरिष्ठ शिक्षकों को बुआ लगा कि इतने वरिष्ट होकर वे रोज असेम्बली में ईश-वन्दना करने पहुँचते हैं और यह कल का लड़का कभी प्रार्थना में उपस्थित ही नहीं रहता.  प्रिन्सिपल के पास शिकायत पहुँची मेरा बुलावा आया. प्रिंसिपल भी गणित के शिक्षक थे और मेरे पढाने से काफी प्रभावित. मैं संवाद "कापी-पेस्ट" कर रहा हूँ: "Mr. Mishra! I have been told that you do not attend morning assemblies"? "you have been rightly told so and if you compel me to attend morning assemblies that will amount to violate Indian Constitution that provides everyone with freedom to religion. And you compel an theist, as I am, to begin his day by praying to some non-entity like God, that will hurt his religious feelings." "ठीक है जाइए, आपसे तार्किक बहस में मैं नहीं पार पाऊंगा, हा हा". वे तो गणित के थे मैं उनकी जगह होता तो पूंछता नास्तिक के धार्मिक भाव कैसे? दूसरे Indian constitution provides right to freedom to religion and not the freedom for religion. और ४ साल बिना ईश्वर की प्रार्थना में शरीक हुए वहाँ नौकरी किया. 

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