Sunday, September 16, 2012

लल्ला पुराण ४० : लड़की थी करती भी क्या.

अनामिका की कविता लड़की थी करती भी क्या.पर कमेंट्स पर मेरे कमेन्ट:
१.
अनामिका बहुत सुन्दर कविता है. "मै लड़की थी करती भी क्या?" यथार्थ का वर्णन ही नहीं है प्रकारांतर से यथार्थ को चुनौती भी है. लिखती रहो. मैंने तुम्हारी वाल पर इस कविता पर तुकबंदी में एक पूरक कमेन्ट किया था. "मैं इक्कीसवीं शादी की मूर्तिभंजक लड़की हूँ या ऐसा ही कुछ. शब्दों की धनी हो इस मौजूदा मर्दवादी यथार्थ को बदलना है शब्दों और कृत्यों दोनों से ......

Anamika Mishra सारी लड़ाई तो समानता और प्रतिष्ठा के साथ सहस्तित्व की ही है. वर्चस्व के विशेषाधिकार मर्द छोड़ दे और पारस्परिक सम्मान से सह-अस्तित्व का माहौल बने, नारीवाद का यही एजेंडा है.

एक मर्दवादी समाज के मर्दवादी दुराग्राहियों को नारीवाद बकवास लगती है क्योंकि वह उनके बर्चस्व को चुनौती देता है. एक दूसरे के समानुभूति के साथ पारस्परिक सम्मान की प्रथा होती तो मर्दवादऔर  नारीवाद  के अवधारणाएं ही न् आतीं अस्तित्व में. तटस्थता एक धोखा है.

Dhirendra P Singh आप मुझसे उम्र में बड़े हैं, इलाहाबाद  भले ही बाद में आये हों. मैं हमेशा से आपका सम्मान करता हूँ. लेकिन मेरे मुह में अपने शब्द न डालें. मैंने कहाँ कहा कि अनामिका की यह सुन्दर  कविता वैचारिक जंग का ऐलान है? और वैचारिक जंग का ऐलान डंका पीटकर नहीं होता, लेकिन इसके लिए साहिय की थोड़ी समझ की आवश्यकता होती है, आत्म-मोह से परे. मैंने यह कहा था कि यह पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की स्थिति का बेबाक यथार्थवादी बयान है जिसमें प्राकांतर इस यथार्थ को बदालने के चुनौती भी है. क्या करती?: में विवशता नहें है बल्कि यथार्थ का पर्दाफास है. और लडकियां जो उपलब्धिया प्राप्त कर रही होएँ वह पुरुषों की दया से नहें पुरुषवादी दाबावों के बावजूद अपने संघर्षों और लगन से.

धीरेन्द्र भाई, गुस्ताखी माफ. मुझे आपके कमेन्ट पर कमेन्ट करने के पहले अपना  कमेन्ट पढ़ना चाहिए था. मुझे आपके साहित्य के अद्ध्यायाँ-अध्यापन और आपकी साहित्यिक समझ पर कभी कोई संदेह नहीं रहा है. मैं खुद कभी भी साहित्य का औपचारिक विद्यार्थी नहीं रहा. इलाहाबाद में विज्ञान का छात्र था और जेएनयू में राजनीति विज्ञान का. अनौपचारिक रूप से भी scholarly patience के आभाव में कुछ यहाँ से पढ़ लिया, कुछ वहाँ से. मुझे कविता के भाषा-शिप, शैली और वाक्य-विन्यास का कोई तकनीकी ज्ञान नहीं है. फैज़, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बाबा, नामवर जी, केदार जी, त्रिलोचन जी जैसे कुछ बड़े साहित्यकारों से परिस्थिति जन्य मुलाकातें हैं. इतने बड़े लोगों से इतने सहज संवाद! गोअरक पाण्डेय और अदम जी संयोग से आत्मीय था. मौजूदा लेखकों से इस लिए जान-पहचान है कि मैं भी बहुत दिनों तक कलम की ही मजदूरी से घर चलाता था.
साहित्यिक समझ की अपनी इन सीमाओं के तहत कुछ साल पहले  अनामिका की इस कविता पर मैं अपनी यही राय बनाता. यह तो या�थार्थ का कुछ अतिरंजित चित्रण है, मैं तो आप जानते हैं हर रचना के नायक-नायिका को लाल झंडा थमा देता हूँ. यह पालिमिक्स है जो वस्तुस्थिति से आगे के भविष्य का अगर-मगर से मुक्त ढांचा बुनता है. इसे रुमानियत कह सकते हैं. प्रेमचंद पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है. मुझे भी लगता था कि यद्यपि चेतना इंसान की भौतिक परिस्थितियों से तय होती है,फिर भी घीसू और माधव की चेतना का अतिरंजना नहीं करना चाहिए था. लेकिन १९२०-३० के दशकों की दलित चेतना इतनी विक्सित नहीं थी कि वे घीसू, माधव को लाल झंडा थमा देते. अनामिका की कविता अनुभूत यथार्थ की ज़रा सी अतिरंजना है. हमारे आपके छात्र जीवन से अब तक दो क्षेत्रों में उल्लेखनीय, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन हुए हैं -- दलित विद्वता और दावेदारी और नारी-विद्वता और दावे डारी -- लेकिन आमूल गुणात्मक परिवर्तन अभी बाकी है. मुझे लगता है कि यह कविता आज की लड़कियों को लड़की होने की वर्जनाओं पर सोचने और मजबूरियों को तोड़ने की प्रेरणा देगी. और मैं तो अपने को कवी मानता ही नहीं. फेसबुक पर आशु तुकबंदियों से थोड़े ही कोई कवी हो जाता है. कुछ बातें तुकबंदियों में कहने का मन करता है कर देता हूँ. कहा-सुनी माफी.
६..
 मैंने कहा कि नारी विद्वता और  दावेदारी के अभियान के चलते परिवर्तन गुणात्मक नहीं सिर्फ मात्रात्मक है. आज भी पुत्र लालसा बहुमत हिंदुस्तानियों में है. क्यों इतनी लड़कियों की भ्रूण हत्याएं हो रही हैं? क्यों हर रोज लड़कियों के बलात्कार और ह्त्या की घटनाएँ हो रही हैं? हममें से कितने लोग हैं जो एक या दो बेटी के बाद बेटे की कामना नहीं किये हैं? कितने लोग हैं जो बेटियों को बेटे के बराबर आज़ादी देते हैं? क्यों सेक्स अनुपात इतना कम है? यूनिवर्सिटी के हास्टल में पीएच.दी. की भी लड़कियों को ७ बजे तक हास्टल लौटना होता है और बी.ए. के लडको का कोई समय नहीं होता. लेकिन नारी चेतना का जो दरिया झूम कर उट्ठा है तिनकों से न् टाला जाएगा. लड़की को यह करना चाहिए वह करना चाहिए-- यानी संस्कार उसके रास्ते में बाधाएं बन रहे हैं. यदि कोई लड़की गुलामी संस्कारों से बगावत करती है लोगों को कल्चरल शाक् लगता है कि "बाप रे! लड़की होकर........ " मैं अपनी स्टुडेंट्स और बेटियों को कहता हूँ इस तरह के कल्चरल शक की निरंतरता की जरूरत है, तब तक जब तक मर्दवादी विचारधारा दुर्ग ढह न जाए. एक बार फिर अनामिका को इतने मर्मस्पर्शी ढंग से लड़की होने की पीड़ा को चित्रित करने के लिए साधुवाद.

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