हर निशा एक भोर का ऐलान है
ईश मिश्र
हर निशा एक भोर का ऐलान है
हर पतन के अंत में उत्थान है
लिखी थीं ये पंक्तियाँ जब थी किशोर वय
उतार-चढ़ाव की थी नहीं जीवन में कोई लय
उत्थान-ओ-पतन के विचार से ही था भाव-विभोर
आये जीवन में तब से उतार चढ़ाव के कितने ही दौर
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलता रहा अकेले
इर्द गिर्द गुजरते रहे तरह तरह के मेले
कैद करना चाहता था विचारों को यथास्थितिवाद
जेल की दीवारों से लेकिन ऊंची थी मेरी आवाज़
गर्दिशों के दौर न तोड़ सके मेरे मजबूत इरादे
धता बता उनको बढता रहा वसूलों पर आगे
नभ में चमक रही थी चपला फिर भी तनिक नहीं मैं विचला
ओलों की बूंदा-बांदी में उदधि थहाने था जब निकला
करता अगर रेगिस्तान में मोती की तलाश
थक-हार कर अंत में हो जाता निराश-ओ-हताश
करता रहा हवा को पीठ देने से लगातार इनकार
होती रही उसके कारिंदों से तकरार बार बार
नाइंसाफी का मौजूदा निजाम गलत है एकदम
विरोध ही है यहाँ एकमात्र सही कदम
बनाया लीक को तोड़ते हुए चलने का पक्का मंसूबा
इसकी तकलीफों का मज़ा है शक्तिदायी अजूबा
जिदगी की जंग में एक बात साफ़ साफ़ आई समझ में
निज हित संरक्षित होगा सामूहिकता के ही हित में
चाहता था लिखना कविता इतिहास के उत्थान-ओ-पतन पर
कलम ने की गुस्ताखी और लिख दिया ज़िंदगी का सफर
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