मेरे पास तो शिक्षा के मठाधीशों से मुठभेड़ की इतनी कहानियां हैं कि महीनों लग जाएगा उन्हें समेकित करने में। इलाहाबाद विवि में 1986 में मेरा इंटरविव 1 घंटा 19 मिनट चला। सही-सही समय का इसलिए पता है कि बाहर इंतजार में बैठे लोग क्लॉक कर रहे थे। निकलते ही केई बोला था, "मुबारक हो, 1 घंटा 19 मिनट"। उन दिनों मैं सेंटर फॉर विमेंस डेवेलपमेंट स्टडीज (सीडब्ल्यूडीयस) के लिए सांप्रदायिक विचारधाराओं में स्त्री की अवधारणा पर काम कर रहा था। आरपी मिश्र कुलपति थे। बात विचारधारा से शुरू हुई, अमेरिका में गुलामी और नस्लवाद वगैरह वगैरह से होती हुई मार्क्स के हेगेल के अधिकार के दर्शन और जर्मन विचारधारा के संदर्भों विचार और विचारधारा (मिथ्या चेतना) में फर्क पर खत्म हुई। 6 पोस्ट थीं, इंटरविव के बाद यूनियन की चाय की दुकान पर चाय पीते हुए सोचने लगा था कि तेलियरगंज में मकान लूं या नए विकसित हो रहे झूसी में? हा हा। नौकरी के मामले में मेरी कोई दूसरी प्रायार्टी नहीं थी, लेकिन रंग-ढंग ठीक नहीं किए। नास्तिक हैं, जब गॉडवै नहीं त गॉडफदरवा की क्या विसात? (बीच-बीच में एकाध साल अस्थाई नौकरी का समय छोड़कर) कलम की मजदूरी से ही घर चलाते रहे और गाहे-बगाहे इंटरविव भी देते रहे। 1995 में जब हम मान लिए थे कि अब बाकी जिंदगी भी कलम की मजदूरी से ही चलानी पड़ेगी कि तो दुर्घटना बस नौकरी मिल गयी। मेरी बड़ी बेटी 12 साल की थी, छोटी 7 की। यलआईजी न ढूढ़ पाने के कारण यचआईजी फ्लैट में रहते थे, अंग्रेजी स्कूल में बेटियां पढ़ती थीं। लेकिन सिर उठाकर जीने के साहस से जो बल मिलता है वह बेरोजगारी के कष्टों पर भारी पड़ता है। पराजित कर देता है। 1981 में पहला इंटरविव दिया था और 1995 में अंतिम। लगता नहीं कि इस जिंदगी में वक्त मिलेगा, मिला तो अपने इंटरविवज की ऐंथॉलॉजी लिखूंगा। शिक्षक यदि वाकई शिक्षक होते तो क्रांति हो जाती, लेकिन ज्यादातर अभागे हैं, नौकरी करते हैं और तीन-पांच। कल ही एक पुराना जेयनयू का मित्र मिला (उप्रसिविल सर्विस से सेवानिवृत्त) बोला 'अबे, रंग ढंग ठीक कर लेते तो रिटायरी के बाद दुगुनी पेंसन मिलती'। ई ससुरा पैसा के अलावा इन गधों के कुछ दिखता ही नहीं। जिसका सपना क्रांति हो वह जीरो बैलेंस जिंदगी काभी सुख भोगता है। मैंने मित्र से कहा कि वह सलाह देने में बहुत देर कर चुका है। मुझसे कोई कहता है कि मुझे देर से नौकरी मिली, मैं कहता हूं सवाल उल्टा है, मिल कैसे गयी?
Thursday, November 30, 2017
बेतरतीब 28 (बचपन 5)
बचपन
की यादों के झरोखे से 5 (मंत्र-तंत्र)
ईश मिश्र
वर्तमान से पलायन कर बचपन
की यादों में झांकने में इतने हजार शब्द खर्च कर चुका तो सोचा थोड़ा कॉपी पेस्ट
भी। फेसबुक पर दिवाली पर पटाखों के संदर्भ में एक पोस्ट पर एक कमेंट और उस कमेंट
की पोस्ट पर एक कमेंट दिख गए, सोचा दोनों को जोड़ कर संपादित कर दूं।
पटाखे की सुगंध मुझे बुरी
नहीं लगती, लेकिन
मेरी बेटी ने तीसरी कक्षा में सपथ ली थी, तबसे घर में पटाखे नहीं आते. मेरे बचपन
में छुरछुरी-पटाखे, उस
अंचल के गांव तक पहुंचे नहीं थे. गांवों की दीपावली का शहरों की तरह व्यवसायीकरण
नहीं हुआ था। यह दियों से अंधेरा मिटाने और अच्छे काम करने के दिन के रूप में
मानाया जाता था। मूलतः यह धान की फसल की कटाई का उत्सव था। हम सब बच्चे बड़े
उत्साह से, दूर
के खेतों समेत, सभी
बागों, खेतों,
कुओं, घूर आदि पर दिए रखते
और सुबह, तड़के
ही दियली 'लूटने'
निकल पड़ते थे। 'लूटी' हुई दियलियों से तराजू और रेल समेत
तरह-तरह के खिलौने बनाते थे. साल भर का मामला होता था इसलिए लालटेन जला जलाकर
किताब भी खोल लेते थे. हमउम्र बच्चे मुझसे बिच्छू का मंत्र बताने का आग्रह करते और
मैं 'बताने
से मंत्र बेअसर हो जाता है' कह कर टाल देता. वे सब मेरी जासूसी करते कि मैं
कहीं-न-कहीं जाकर मंत्र 'जगाऊंगा'. अब मंत्र हो, तब तो जगाऊं! कलम भी मेरा बिल्कुल आवारा है, दिवाली में
बिच्छू के मंत्र की याद दिलाकर, अपने अतिवांछित तांत्रिक होने की याद दिला दी।
लगता है सठियाने के बाद बचपन ज्यादा याद आता है। इसके विस्तार में तो लंबा लेख हो
जाएगा, इसलिए
संक्षेप में.
मेरे पिताजी ठीक-ठाक
गप्पबाज थे। कृपया इसे पितृ-निंदा न माना जाये। भूत-प्रेतों से संवाद तथा उन्हें
बेवकूफ बनाने की कई कहानियां सुनाते थे। उस समय समझ इतनी विकसित नहीं थी कि जानता सशरीर
भूत (आत्मा) की बात तो अपने-आप में
विरोधाभासी है। भूत की बात से विषयांतर नहीं करूंगा। वे नजर झाड़ते थे और बिच्छू
का भी मंत्र जानते थे। मुझे इतने जादुई ढंग से दर्द घटने से मंत्र के चमत्कार
जानने की उत्सुकता रहती। मैं ठीक से तो नहीं बता सकता,
लेकिन 5
साल से ज्यादा ही उम्र रही
होगी। स्कूल जाता था और पढ़ना-लिखना भलीभांति सीख गया था। हर अज्ञात के प्रति मेरी
उत्सुकता रहती थी पिताजी की मंत्राचार को मा बहुत ध्यान से देखता था। मिट्टी या
राख फैलाकर उस पर एक लाइन खींचते। उस पर डंक वाली हाथ या पैर रखवाते। यदि
बिच्छी कहीं और डंसा हो तो उस अलंग का हाथ या पैर रखवाते और राख पर कुछ लिखते फिर
अपनी बांयी हथेली पर कुछ लिखते और तीन बार ताली बजाते। यह प्रक्रिया 4-5 बार
दुहराते और पीड़ा घटते-घटते डंक की जगह तक सिमट जाती। मैं बहुत गौर से पढ़ता था और
पता चल गया क्या दो शब्द लिखते हैं। सोचा हाथ पर भी वही लिखते होंगे और गायत्री
मंत्र की इतनी महिमा है तो ताली बजाते हुए उसका ही जाप करते होंगे।
एक दिन तेलियाने से कोई
(शायद ऱाम अजोर) पिता जी को खोजते आए। उनकी बेटी (12-13 साल या ऐसे ही) को बिच्छू ने डंक
मार दिया था। पिताजी घर पर थे नहीं। मुझे मंत्र साधक बनने का मौका मिल गया। मुझे
लगा कि यदि सारी महिमा उन दो शब्दों और गायत्री मंत्र का है तो मेरे लिखने से भी
वही असर होना चाहिए। और हुआ भी। मैंने बहुत आत्मविश्वास के कहा कि मुझे मंत्र आता
है। उनके पास मेरी बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह लड़की तकलीफ से
लोट-पोट हो रही थी. मैंने जो सब पिताजी करते थे किया। उस प्रक्रिया को 5-6
बार दोहराया और उसका दर्द
कंधे से उतर कर डंक की जगह के आस-पास सिमट गया। मैं पहली ही बार में अपनी सफलता और
दो शब्दों की महिमा से सातवें आसमान पर था। रातो-रात मैं अपने और अगल-बगल के गांवों में
मशहूर हो गया. सही-सही तो नहीं कह सकता, 6-7 साल का रहा होऊंगा। इतना छोटा था कि अगल-बगल
के गांव के लोग रात को सोते हुए गोद में उठा ले जाते थे. सेलिब्रिटी स्टेटस
में मजा आने लगा. बिना कभ जगाए मंत्र से सबकी सचमुच की पीड़ा कसे कम-खतम हो जाती
थी? सोचा
शायद इन पवित्र शब्दों में कुछ करामाती महिमा हो. लेकिन एक बात कभी-कभी
खटकती थी कि पिताजी ने मुझसे कभी नहीं पूछा कि बिना उनके बताए उनका एकाधिकारिक
मंत्र मैने किससे सीखा? लोग तो सोचते होंगे
उन्होंने ही सिखाया होगा। मुझे
लगता है भौतिक पीड़ा की गहनता मनोवैज्ञानिक मनोस्थिति से जुड़ा होती है। छठी-सातवीं तक मैं बिच्छू झाड़ने से ऊब गया और यह कहकर छोड़ दिया कि मंत्र आता ही
नहीं। फिर भी लोग बुलाते थे लेकिन मंत्र ने काम करना बंद कर दिया। बात शुरू हुई थी
दीवाली में पटाखों से, 1967 में जब पढ़ने शहर गया तो दीवाली में पटाखे और छुरछुरियां
ले गया। तबसे संयुक्त परिवार के सारे भाई-बहन और पड़ोस के हमउम्र हर दिवाली हमारी
छत पर घंटों पटाखे-छोड़ते. गांव में आखिरी दीवाली के कितने साल हो ठीक से तो नहीं
याद, लेकिन
3 दशक
तो हो ही गए होंगे। बिच्छू मंत्रसाधना अनुभव और एक जमींदार के घर से भूत निकलने के
रहस्य ज्ञान के बात तंत्र-मंत्र और कर्मकांडों से मेरा मोहभंग शुरू हो गया। भूतों
से मुठभेड़ और ओझाई की कहानी, यादों की अगली किसी किश्त में।
30.11.2017
Wednesday, November 29, 2017
बेतरतीब 27 (बचपन 4)
बचपन की
यादों के झरोखे से 4
ईश
मिश्र
थोड़ा बड़े होकर
अक्षरज्ञान के बाद पूरा रामचरित मानस रोचक कहानी की तरह पढ़ गया। जब दोहा-चौपाई
समझ में आ जाती थी तो बिना टीका के अन्यथा साथ में दी गयी टीका के साथ। मुझे कहानी
में दो ही लोचे लगे थे। सूर्पनखा के नाक-कीन कटवाना और सीता की अग्निपरीक्षा के बाद
भी बेघर कर देना। घर में इसके अलावा हिंदी की किताबें ही नहीं थीं। संस्कृत आती ही
नहीं थी। बचपन में देवतन के घर (कमरे) में संस्कृत और फारसी की पांडुलिपियों से
भरा काठ का एक बहुत बड़ा बक्सा था। उसमें तरह तरह के शंख भी थे। शंख तो पुराहिती
करने वाले लोग ले गए और पांडुलिपियां मजदूरों के नाश्ते के नमक-मिर्च की पुड़िया
बनाने में या ऐसे ही कामों में खर्च कर दिया। मेरे परदादा के बारे में कहा जाता था
कि संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। मेरे पिताजी के जन्म के पहले ही उनका निधन हो
चुका था। बाबा कितना और कहां पढ़े थे पता नहीं, कभी पूछा नहीं।
पंचांग और संस्कृत का ज्ञान लगता है उन्हें विरासत में मिला था। गांव में एक
बुजुर्ग, लल्लू (लालबहादुर सिंह) बाबा ही थे जो परदादा की
कहानियां बताते थे। मैं जब भी छुट्टियों में घर जाता उनसे मिलने जरूर जाता।
ग्रामीण संवेदनशीलता बहुत क्रूर होती है। एक छुट्टी में गया और मालुम नहीं था कि
लल्लू बाबा का निधन हो गया था। याद नहीं कौन लड़के थे, मुझे इस गमगीन खबर को सहजता से बताने की बजाय
मेरा परिहास करते हुए आपस में एक भद्दी परसंतापी हंसी शेयर करते हुए, एक ने दूसरे से परिहास के अंदाज में पूछा ‘लल्लू बाबा से मिलय आय हयन’। आजतक याद है उनका सूचना का तरीका बुरा लगा था
और चुपचाप उस टोले से निकल,
ऐसे ही नदी की तरफ चला गया, नदी पार किया और परकौलिया बाजार चला गया, तिलकधारी चाचा मिल गए और लंबी चाय की अड्डेबाजी
के बाद वापस रास्ते लालू भाई मिल गए। कहीं से आ रहे थे, परकौलिया पहुंचने तक अंधेरा हो गया। खेतों-गांवों
के रास्तों से दूरी का पता नहीं चलता था, लेकिन 5-6 किमी
होगा। लालूभाई भूतों से डरते थे, रास्ते में कई भूतों
के ठीहे थे। मेरा तब तक भगवान का तो नहीं भूत का भय खत्म हो गया था। भूतों से
टकराव की कहानियां आगे कभी मौका मिला तो शेयर करूंगा। लालू भाई ने कहा, “अरे इसनरायन भाई, तोहैं त
भगवान भेजि देहेन...”। रास्ते में नदी के एक दम पहले बैरी बाग है, माना जाता था कि वहां बैरी बाबा नाम के हमारे
किसी पूर्वज की आत्मा का निवास था। कुछ लोगों के बैरी बाबा से सशरीर मुलाकात की भी
कुछ कहानियां प्रचलित थीं। बैरी बाग में बैरीबाबा को मैंने गाली देकर चुनौती दी कि
जो बिगाड़ना हो लें। लालू भाई बोले कि हमारे पूर्वज थे, गाली नहीं देना चाहिये। मैंने कहा, पूर्वज हैं तो चुपचाप शांति से रहें, बच्चों को डराते क्यों हैं?। मुझे भी लगता है अनायास गाली नहीं देना चाहिए
था, लेकिन बच्चा नैतिक अनैतिक नहीं होता, वह तो महज आत्मप्रेम और आत्मसंरक्षण की स्वाभाविक
प्रवत्तियों वाला मासूम जीव होता है, गुण-दुर्गुण तो वह
समाज से ग्रहण करता है। नदी तट तक पहुंचते पहुंचते बाबा की आवाज सुनाई देने लगती
कि 2 दिन के लिया आता है पता नहीं कहां कहां आवारों की तरह घूमता रहता है? युग जमाना खराब है, इतनी
रात हो गई। मेरी आहट पाते ही बाबा चुप हो जाते और चरणस्पर्श करते ही, डांट प्यार में बदल जाती।
सेंटियाकर
नस्टजियाने में बचपन की यादों में फंस कर मौजूदा विषयों और वायदाशुदा कामों से भटक
गया, वह भी ऐसी यादें, जिनकी
कोई समकालिक, सामाजिक प्रासिंगता नहीं है। यादों का यह एपीसोड
मुंडन की यादों के साथ खत्म कर यादों के झरोखे को एक लंबी अवधि के लिए बंद कर, आज से संपूर्णता में रूबरू होऊं। हम सारे भाइयों
की मुंडन 2 बार हुई, भैरो बाबा में दूसरी बार विंध्याचल। भैरो बाबा
आजमगढ़ जिले में महराजगंज से कुछ दूर उत्तर में भैरोबाबा का मंदिर है, मुंडन के बाद फिर कभी नहीं गया लेकिन एक-डेढ़
महीना उद्योग विद्यालय कोयलसा में पढ़ने के दौरान चाय पीने महराजगंज रोज ही जाते
थे। हमारे यहां से लगभग 40-45 किमी होगा। उस समय पैदल, बैलगाड़ी, तांगा-इक्का ही
यातायात के साधन थे। कहीं कहीं के लिए कहीं कहीं से कुछ बसें भी चलती थीं। मेरे
पिताजी समेत कुछ लोगों के पास साइकिल भी थी। जाने की यात्रा की याद नहीं लौटने की
थोड़ी थोड़ी याद है। यह भी याद है कि बाल काटने वाले नाई से मैं बाल वापस लगाने की
जिद कर रहा था, हा हा। पिताजी (बाबू) और अइया के साथ साइकिल पर
गया था। साइकिल पर दादी को पीछे बैठाकर खेतों की पगडंडियों और गांवों के रास्ते की
यात्रा थी। रास्ता किसी गांव के अंदर
पहुंचता तो दादी उतर कर पैदल चलती। अहरौला से पहले किसी गांव में पिताजी के
किसी परिचित की नई गोशाला में अहरा लगाया था। यह इसलिए याद है कि लोग खासकर मेरी
मूर्खता के पक्ष में इस घटना की याद दिलाते हैं। खाना बनाते हुए मां-बेटे अपनी
बातों में लग गया और मैं गांव के भूगोल का मुआयना करने निकल पड़ा (यह आदत आज तक है)।
मैं वहां से पैर से किरमिच के जूते से मिट्टी में निशान लगाते गया था, यह इसलिए याद है कि डांट से बचने का यही तथ्य
साधन बना था। अब लगता है,
बचपन से ही आवारा हूं।
बचपन में मेरे ‘खोने’ की तीन और घटनाएं
हैं। (एक और बार ‘खोया’ था, जो जीवन का मेटामॉर्फिस विंदु बन सकता था, 16 की उम्र मे। लेकिन सौभाग्य से बच गया, सत्य समाज में है, गुफाओं
और कंदराओं में नहीं। इस बारे में कभी वक्त मिला तो किशोर यादों के किसी झरोखे से
शेयर करूंगा।) मुंडन के आसपास की ही बात है। एक बार छुपन-छुपाई खेलते हुए मैंने
पुरौट के नीचे एक आंटा पुवाल में अपने को छुपा लिया। पुवाल की ऊष्मा से नींद आ
गयी। नींद खुली तो देखा दुआरे अफरा-तफरी मची थी। लोग मुझे नदी के किनारे और पास के
बबूल के बन में खोजने लगे। खैर अइया ने प्यार से गोद में ले लिया फिर किसी की
डांटने की हिम्मत नहीं थी,
पिटाई की तो बात ही छोड़ो। अइया हम बच्चों की
सुरक्षा कवच थीं।
बचपन की ‘खोने’ की बाकी दो घटनाओं
में कौन पहले की है कह नहीं सकता, लेकिन जो ज्यादा
सचित्र याद है, उसे बाद की मान लिया जाए। गांव के कुछ पुरुष और
कई स्त्रियों के ‘मेला’ के साथ विंध्याचल
गया था। शायद दूसरी मुंडन के लिए। मेले में घर का और कौन था याद नहीं, लेकिन अइया और माई तथा पड़ोस की एक काकी व एक
भाभी की याद है। माधव सिंह एक स्टेसन है, गंगा से थोड़ी ही दूर। वहां पहली और आखिरी बार वही गयां हूं। शायद बनारस
इलाहाबाद (तब छोटी) लाइन पर है। हम वहां
कैसे पहुंचे होंगे, अंदाज ही लगा सकता हूं। सबसे नजदीकी स्टेसन बिलवाई है
वहां लोकल-पैसेंजर गाढ़िया ही रुकती हैं, फैजाबाद-मुगल सराय लोकल से
बनारस गए होंगे और वहां से माधव सिंह। गंगा पर मिर्जापुर में पुल नहीं था, स्टीमर चलता था। अगले स्टीमर के घाट पर आने में काफी देरी थी। सब लोग
स्टेसन के बाहर डेरा जमाए थे। मैं आदतन आस-पास के भूगोल और समाजशास्त्र का मुआयना
करने निकल पड़ा। बाजार भी लगी थी। जो भी मुझे देखते, लगता है सोचते होंगे मैं, खो गया हूं। एक ने रोक कर पूछ ही लिया कि मैं किसी को खोज रहा था, मैंने कहा नहीं, मेला घूम रहा था। जेब में कुछ पैसे थे, खीरा खरीद लिया। खाते हुए उसी रास्ते स्टेसन पहुंच गया। सीधा रास्ता था, भूलने की गुंजाइश नहीं थी। मेला में हंगामा मचा था, मुझे देख सब चकित थे। उन लोगों ने जहां मैं था वहां छोड़ कर सब जगह खोज
डाला। । मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इसमें ऐसा क्या हो गया कि लोग इतने परेशान हो
गए। मां के पूछने पर मैंने मासूमियत से कहा, खीरा खाने गया था। सब हंस
पड़े। स्टीमर देख कर, आज भी याद है, इतना विशाल और अंदर जाकर ऊपर
नीचे करने लगा। किसी को मुझपर नजर रखने के लिए कहा गया। बाकी विंध्याचल की यादों
में कुछ उल्लेखनीय नहीं है। काली खोह पर पहली बार लंगूर देखा और उसकी एक्रोबेटिक्स
पर मुग्ध हो गया था। पहाड़ पर एक देवी का मंदिर है, शायद अष्ठभुजा देवी का। उनके
बारे में कहा जाता है कि कंस कृष्ण से बदली नंद की बेटी को मारने की कोशिस की तो
वह उसके विनाश की आकाशवाणी करते हुए उसके हाथ से छूटकर हवा में विलीन हो गयीं और
विध्याचल के पहाड़ पर आकर वहीं स्थापित हो गयीं। एक और बात जो याद है, वह है पहाड़ के ऊपर से घाटी में चरते गाय-भैंस-बकरी.. और चरवाहे इतने छोटे
दिख रहे थे कि मुझे लगा था कि ये लोग किसी और लोक के हैं। पता नहीं इन सामान्य
यादों में समय खपाने का कोई सामाजिक उपयोग है या नहीं। 2-4 पैरा की बात को अनावश्क
रूप से फैला दिया। खैर जब फैला ही दिया तो मेले में ‘खोने’ की आखिरी कहानी बता ही दूं।
आजमगढ़ जिले में एक जगह है, दुर्बासा। टंवस और मझुई नदियों के संगम पर। पिछले लेख में खुरासों का जिक्र
किया था, जूनियर हाई स्कूल की परीक्षा सेंटर। वहां से कुछ किमी उत्तर। किंवदंति के
अनुसार, दुर्वाशा ऋषि, जिनका स्पेसलाइजेसन, जैसा कि सविदित है, क्रोध और शाप में था। ई ऋषि-मुनिवे इतने खुराफाती क्यों होते थे? परिभाषा से तो उन्हें ज्ञानी
और दयालु तथा परमार्थी होना चाहिए? और ई भगवान लोग भी अजीबै हैं, कभी भी किसी की तपस्या से खुश होकर ऊलजलूल बरदान दे देते थे। याद नहीं आ रहा है किस
देवता ने दुर्वाशा को शाप से भस्म करने की शक्ति का बरदान दिया था? पता करके लिखूंगा। लेकिन देवता
लोगन के दिमाग नहीं होता क्या? यह
भी याद नहीं कि दुर्वासा ने किस देवता या नामी-गिरामी भक्त को शाप दिया था कि
विष्णु इतने कुपित हो गए कि उसकी हत्या के लिए चक्र सुदर्शन छोड़ दिए। दुर्वासा
भागते-भागते नदी में कूद पड़े, लेकिन
सुदर्शन कहां मानने वाला था, विष्णु
का चक्र था पिछियाते–पिछियाते
नदी मे दुर्वासा के सिर ऊपर उठाने का इंतजार करने लगा और सिर उठाते ही चीर दिया।
मंदिर में उनकी मूर्ति का सिर फटा हुआ है। श्रृष्टि के रक्षक भगवान इतने कमजोर हैं
कि किसी बौड़मियाए साधू को सही रास्ते पर लाने में अक्षम होता है और उसकी हत्या कर
देता है। भगवान-खुदाओं के साथ दंड और भय की ही अवधारणाएं धर्मों के अभिन्न अंग के
रूप में क्यों जुड़े है? विष्णु
अपनी कैबिनेट में ऐसे देवताओं को क्यों रखते हैं जो इतने विनाशक शाप की क्षमता का
वरदान दे देते हैं? दंड
से सिखाने वाला शिक्षक,
शिक्षक की पात्रता खो देता है, उसी
तरह कुछ व्यक्तियों की हत्याकर या सजा देकर धरती से पाप दूर करने वाला भगवान, भगवानत्व की पात्रता खो देता
है। भूमिका बहुत लंबी हो गयी। मैं 3 साल हॉस्टल का वार्डन था। मेरे आने के पहले
हॉस्टल में हर दूसरे-तीसरे पुलिस आती थी। मैं 3 बातें तय करके आया। 1. बच्चों की
नाक की लड़ाई (गुंडागर्दी) का अंत कर दूंगा। 2. जिस दिन पुलिस बुलाने की नौबत आई
अपना सामान पैक करूंगा। हमारे अंडर-ग्रेडुएट, पोस्ट ग्रेजुएट कक्षाओं के बच्चे अपराधी तो हैं नहीं। इतनी युवा
ऊर्जा होती है कि रचनात्मक उत्सर्जन के अभाव में कभी-कभी बाहुबल प्रदर्शन में
प्रष्फुटित हो जाती है। उन्हें रचनात्मक मोड़ देना शिक्षक का काम है, न कि दंडित कर सुधारने का
अशिक्षकीय काम करना। 3. किसी भी विद्यार्थी के रस्टीकेसन का सम्मान नहीं दूंगा।
तीनों काम संपन्न हुए,
जिन बच्चों की जितनी ‘क्लास’ वे
उतना ही प्यार करते हें। हमारे बच्चे प्रतिभा संपन्न हैं, वह शिक्षक क नीयत समझते हैं। इन
दिनों की चर्चा कभी बुढ़ापे की यादों के झरोखे से करूंगा। भूमिका लंबी होने के
इक़बाल के बाद इतना और बढ़ा दिया।
मूल कहानी पर वापस आते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा को दुर्वासा में बहुत बड़ा मेला लगता था (अब भी लगता होगा)। यह रात का मेला होता है (जानकार लोग संशोधन
करें) और भोर में नहान। सैकड़ों लोग भोर 4 बजे से ही नदी में, कांपते हुए डुबकियां लगाना शुरू
कर देते थे (अब भी ऐसा ही होगा)। मेरे पिताजी और भइया ने मुझे बहकाकर बाग में
खेलने भेज दिया और खुद साइकिल से मेला चल दिए। सही सही नहीं कह सकता कि क्या उम्र
रही होगी, लेकिन
चीन के साथ लड़ाई के पहले की बात है और स्कूल जाना शुरू करने के बाद की। यह अच्छी
तरह याद है कि घुटनों तक आने वाली भइया की पुरानी कोट पहने था। किसी लड़के ने
बताया कि बाबू-भइया मुझे दुर्वासा के लिए निकल पड़े हैं। अपने साथ ऐसा ‘छल’ बर्दाश्त के बाहर था, मैं सीधे अंडिका की सड़क की तरफ
दौड़ पड़ा। साइकिल का रास्ता घूमकर था और पैदल का सीधा। अंड़िका पहुंचते-पहुंचते
ये लोग जरा सा आगे निकल गए थे। खेत में काम करते किसी ने मुझे देख और पहचान लिया
और पिताजी को आवाज दिया। वे लोग रुक गए और ‘छल’ के
लिया पछतावा के बदले भइया मुझे ही डांटने लगे। खैर इसके वर्णन की न गुंजाइश है, न जरूरत। चांदनी रात में साइकिल
यात्रा में बहुत मजा आ रहा था। अंदाजन 20-25 किमी की दूरी होगी। इतना बड़ा मेला और
इतनी दुकानें,
इतने लोग एक जगह पहली बार देख रहा था। पिताजी के कई परिचित मिल गए। एक जगह चाय
पीने बैठे और अपने परिचितों से वार्तालाप में उलझ गए। छोटा सा कुल्हड़ होता था, मैं गरम गरम 4 चाय पी गया।
मुझे इन लोगों के वार्तालाप में मजा नहीं आ रहा था सो भूगोल का मुआयना करने चल
दिया। निशान तो दिमाग में बैठाकर चलता गया। एक अस्थाई दुकान पर पकौड़ियां बन रहीं
थी। दुकानदार से पकौड़ी मांगा, उसने
पूछा किसके साथ था? मैं
चवन्नी दिखाकर बोला था कि मेरे पास पैसा है। पकौड़ी खाकर थोड़ा कन्फुजिया तो मगर
उस चाय की दुकान पर पहुंचा तो ये लोग गायब। दुकानदार से पूछता तो वह बताता कि पिताजी
यहीं रुकने को कहे हैं लेकिन मैं इन लोगों को खोजने निकल पड़ा। लेकिन इतनी भीड़
में कैसे खोजूं? मेरे
मन में एक अज्ञात भय यह लेकर था कि किसी को पता न लग जाए मैं ‘खो’ गया हूं। मैं उसी पकौड़ी की
दुकान पर बैठ गया क्योंकि घर वापसी का वही रास्ता था। मन में अजीब अज्ञात घबराहट
हो रही थी और मैं छिपाने की कोशिस कर रहा था। तभी एक सज्जन कंबल ओढ़े आकर मेरी बगल
में बेंच पर बैठे और मेरी पीठ पर हाथ रख दिए। मैं डर गया। उन्होने बड़े दुलार से
पूछा, ‘तू
सुलेमापुर के सालिकराम पंडितजी क हेरायल लडिका हव न?’
मुझसे कुछ कहा नहीं गया। बस तेज तेज रोना शुरू कर
दिय़ा। वे वहीं बैठने को बोल पिजाजी को बताने-बुलाने चले गए। पिताजी को देखते ही
मैं लिपट कर रोने लगा। वे पगलू कर गोद में उठा लिए। लेकिन भैया को डांटने का मौका
मिल गया। खैर बाकी नहान और मेले की और यादें प्रासंगिक नहीं हैं। बाबा पागल नामकरण
कर चुके थे, लोगों
को सत्यापन के लिए एक और तथ्य मिल गया। मेरी बेटी मेरी किसी बेवकूफी पर पूछती है
कि मैं बचपन से ऐसे ही हूं क्या? मैं
स्पष्ट जवाब नहीं दे पाता।
29.11.2017
Tuesday, November 28, 2017
बेतरतीब 26 (बचपन 3)
बचपन की झरोखे से 3
ईश मिश्र
पांच साल से कम उम्र की बहुत कम बातें याद रहती हैं,
वह भी क्रम में नहीं। हिंदू समुदाय में विषम संख्या महत्वपूर्ण मानी जाती है।
क्यों? पता नहीं। बजार में नगद उपहार के लिए एक रुपया चिपका हुआ लिफाफा मिलता है।
शुभ काम विषम सालों में होता है, जैसे मुंडन जन्म के पहले, तीसरे और पांचवे साल
में होता है। बाल विवाह की प्रथा थी तो लड़की की विदाई शादी की बारात की विदाई के
साथ नहीं होती थी। साल भीतर, तीसरे, पांचवें, सातवें.. साल फिर एक छोटी बारात जाती
थी लड़की की विदाई कराने, जिसे गवन कहा जाता है। अब जब कि बाल विवाह, काफी हद तक
खत्म हो चुका है तब भी गवन की प्रथा बरकरार है। शादी के 1-2 दिनों बाद गवन आता है।
यह भूमिका इसलिए कि बाबा (दादाजी) की पंचांग गणना के अनुसार, मेरी मुंडन की सही
तारीख पांचवें साल में थी। पांच साल लंबे बाल थे। मेरा छोटा भाई मुझसे डेढ़-दो साल
ही छोटा था तो मेरा शुरुआती बचपन अपनी अइया (दादीजी) के साथ बीता है। किसान घरों
में महिलाओं के पास ज्यादा काम होता है। उन दिनों आंटे की पिसाई (जांते पर), धान
की कुटाई (ओखला में), दाल दड़ना (चक्की पर) भी घर में ही होता था। मां के आंटा की
पिसाई के अनुभव की एक घटना इसलिए याद है कि लोग गाहे-बगाहे याद दिलाते रहते थे।
मां (माई) जांते पर आंटा पीस रही थी। मैं उसकी पीठ पर झूला झूल रहा था। जांते के
हैंडिल का सिरा नुकीला होता है और मेरे माथे मे चुभ
गया और नाक के ऊपर माथे पर ऊर्ध्वाधार तिलक का निशान बन गया जो आज तक है। यह इसलिए
याद है कि घर वाले बार बार याद दिलाते रहते थे।
एक और घटना जिसमें
मौत छूकर निकल गयी। उस दृश्य की याद आज भी दिमाग में गोदार की किसी फिल्म को किसी
दृश्य की तरह आंखों के सामने घूमने लगती है। हमारा गांव एक छोटी सी नदी, मझुई के किनारे
बसा है। बरसाती नदी है, कहा जाता है कि काफी दूर पश्चिम में कोई मझौरा ताल है वहीं
से निकली है। लेकिन बारहों महीने बहता पानी रहता था। हम बच्चे जहां नहाते और पानी
के खेल खेलते वहां नदी काफी गहरी थी। अब तो गर्मियों में सूख जाती है, कहीं-कहीं
ठहरा पानी रह जाता है। कहावत है अधजल गगरी छलकत जाए, छोटी नदियों में बाढ़ भीषण
होती है। किस सन की बात है कह नहीं सकता लेकिन 1960 से पहले की बात होगी क्योंकि
1960 में मैं उम्र के पांचवें साल में था और पांचवे साल में मेरी मुंडन हो गयी थी।
हमारा और हमारे सबसे नजदीकी पट्टीदार राम मिलन भाई का घर काफी ऊंची मिट्टी की पटाई
करके बने थे इसलिए वहां तक पानी नहीं आता
था लेकिन कई घरों दुआर (सहन) तक आ जाता था। बचपन की यादों के पहले भाग में
अपने एक समौरी (हम उम्र) दामोदर का जिक्र किया है, पानी उनके दुआर के नीचे तक था।
मैं और मुझसे 5-6 महीने छोटी मेरी फुफेरी बहन, विमला, उनके दुआर पर बाढ़ के पानी
से खेल रहे थे कि वह उसमें फिसल गयी। मैंने उसकी चोटी पकड़कर खींचना चाहा मैं भी
उसीके साथ पानी में डूबने लगा। एक और लड़की ने मेरी चोटी पकड़ ली। अब याद नहीं भूल
गया कौन थी? पानी बहुत गहरा नहीं था लेकिन बहाव वाला था और हमारे डूबने के लिए
काफी। हम तीनों डूबने लगे। दूसरी तरफ बाग से कन्हैया भाई (स्व. कन्हैया मिश्र) आ
रहे थे, उन्होंने दौड़ कर हम तीनों को बाहर निकाला। हमने उनसे घर न बताने की बिनती
की लेकिन वे माने नहीं और गांव में हम चर्चा का विषय बन गए। मेरी फुफेरी बहन से मेरी बचपन से ही
दोस्ती थी लेकिन अब संयोग से आखिरी मुलाकात को 41 साल हो गए। 1976 में आपात काल
में लगता था कि आपातकाल, मुसोलनी के फासिस्ट शासन की तरह बीसों साल रह सकता है।
भूमिगत अस्तित्व की संभावनाएं तलाशने दिल्ली आने का निर्णय लेने के बाद कई
रिश्तेदारों से मिल कर आने की सोचा। बुआ के घर एदिलपुर गया और वहां से 3-4 किमी
दूर अकबेलपुर उसकी ससुराल है, सो उससे भी मिलने चला गया, उसकी बेटी एक साल की थी।
कई बार, कई दिन तक
मां और दादी को मेरे बाल धोने और संवारने का मौका नहीं मिलता था तो बाल में साधुओं
की तरह लटें पड़ जाती थीं। लोग कहते थे इमली हिला दो मैं सिर हिलाकर इमली हिलाता
था। मां और दादी अच्छा बच्चा बनने को कहतीं। मुझे जो अच्छा लगता था वही करता। बाबा
ठाकुरबाबा को चंदन लगाने के बाद अपने से पहले मेरे माथे पर चंदन लगाते। जात-पांत
से परे सभी बड़ों को भइया, काका, दादा या बाबा बुलाता था। हमारे दो हलावाहे थे,
खेलावन काका और लिलई काका और खेलावन के बेटे बंशू भइया चरवाहे थे तथा घर पर ही
रहते थे। उन्होंने मुझे बहुत गोद खेलाया है। वे घर के सदस्य से थे लेकिन खाने के लिए
उनका अलग बर्तन था जिसे वे धोकर बाहर चारे की मशीन के मड़हा में रख देते थे।
उन्हें भी यह सामान्य लगता था क्योंकि वर्चस्वशाली वर्ग के विचार ही अधीन वर्ग के
विचार होते हैं। शोषण में भावनात्मक तड़का। जैसे आजकल लोग ‘काम वाली’ को घर का
सदस्य कहते हैं लेकिन लाखों की आमदनी के बावजूद उसके वेतन में 100 रूपए बढ़ाने में
नानी मरती है। मेरी छवि ‘अच्छे बच्चे’ की थी, और मैं और अच्छा बनने की कोशिस करता।
गांव की कुछ महिलाएं मुझे साधू बुलातीं थीं।
एक बात तो इसलिए याद
है कि साथ के बच्चे और कुछ बड़े भी कई सालों तक चिढ़ाते थे। बड़े बाल होने के नाते
कई अपरिचित घर आते या रास्ते में मुझे ‘बेटी’ पुकार देते। बुरा तो बहुत लगता लेकिन
‘अच्छे बच्चे’ की छवि के दबाव में बर्दास्त कर लेता। लेकिन बर्दास्त की भी एक सीमा
होती है। एक बार गांव के बाहर की बाग में हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहा था। साइकिल
साइकिल खड़ी कर एक आगंतुक ने मेरे पिताजी का नाम लेकर पूछा, “हे बिटिया, सालिकराम
पंडित जी का घर किधर पड़ेगा”? उनके सवाल का जवाब देने से पहले ही मेरी सहनशीलता का
बांध टूट गया। मैंने गुस्से में प्रमाण के साथ उन्हें बताया कि मैं बिटिया नहीं
बेटवा हूं। वे हंसने लगे और गोद में उठा लिए और फिर उतर कर मैं उन्हें लेकर घर गया।
इस याद का जिक्र
इसलिए कर रहा हूं कि 3-4 (5 से कम) उम्र के बच्चे को कैसे मालुम कि बेटी कहा जाना
अपमान की बात है और वह लाज-शरम छोड़कर, अच्छे बच्चे की परवाह किए बिना अपना बेटापन
साबित करता है? बेटियों को तो आज भी लोग बेटा कह कर शाबासी देते हैं, वे भी इसे
शाबासी ही लेती हैं। हम तमाम मूल्य और मान्यताएं अपने समाजीकरण के दौरान बिना किसी
सचेत प्रयास के अंतिम सत्य के रूप में ग्रहण कर लेते हैं और वह सोच हम अंतिम सत्य
की तरह हमारे मन में आत्मसात हो जाती है, जिस पर हम सवाल नहीं करते और जो हमारे
‘संस्कार’ का हिस्सा बन जाती है। इन अनायास मिले विरासती मूल्यों की जकडन, जीवन को
जड़ता में जकड़ देती हैं। विरासती जड़ता को तोड़कर विवेकसम्मत मूल्यों की रचना के
लिए संस्कारों से विद्रोह का साहस करना पड़ता है। विद्रोह ऋजन है।
पिछले दिनों फेसबुत पर तुकबंदी में एक कमेंट लिखा
गया था:
इसीलिए मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां
जो संस्कारों की माला जपते हुए नहीं
तोड़ते हुए आगे बढ़ती है
पाजेबों को तोड़कर झुनझुना बना लेती है
और आंचल को को फाड़कर परचम
मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां
जो मर्दवाद को देती हैं सांस्कृतिक
संत्रास
वह सब कह और कर के
जो उन्हें नहीं कहना-करना चाहिए
जरूरत है इस संत्रास की निरंतरता की
मटियामेट करने के लिए
मर्दवाद का वैचारिक दुर्ग
(ईमि: 01.08.2017
उपरोक्त घटना की चर्चा मैं अपने विद्यार्थियों
को विचारधारा पढ़ाते समय कभी-कभी करता हूं। किसी
लड़की को बेटा कह कर शाबासी देता हूं औप पूछता हूं कि अच्छा लगा, उसके हां कहने पर
किसी लड़के को बेटी कहता हूं तो पूरी क्लास हंस पड़ती है। मर्दवाद (जेंडर) न तो
जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति है न ही कोई साश्वत विचार जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक चला आया
है। मर्दवाद विचार नहीं विचारधारा है जो हम रोजमर्रा की जिंदगी की गतिविधियों तथा
विमर्श से निर्मित, पोषित और पुनर्निमित करते हैं। विचारधारा एक मिथ्या चेतना है
जो एक खास संरचना और उसके मूल्यों को प्रकृतिदत्त; स्वाभाविक; परमावश्यक; और अंत
में अपरिहार्य के रूप में, शासक वर्गों के विभिन्न वैचारिक उपकरणों रूप में
प्रतिस्थापित की जाती है। टीना (देयर इज़ नो अल्टरनेटिव) सिंड्रोम। विकल्पहीनता
मुर्दा कौमों की निशानी है, ज़िंदा कौमें कभी विकल्पहीन नहीं होतीं। विचारधारा न
सिर्फ उत्पीड़क का हथियार है बल्कि पीड़ित का भी सत्य है, पीड़त जब सत्य का रहस्य
तोड़ता है तो विद्रोह करता है। मैं लड़कियों और दलितों को कहता हूं कि वे
भाग्यशाली हैं कि हमसे 1-2 पीढ़ी बाद पैदा हुए, लेकिन जो (जितनी भी) आजादी और
अधिकार तुम्हें सुलभ हैं वे पिछली पीढ़ियों के निरंतर संघर्ष का नतीजा है तथा
विरासत के आगे बढ़ाना उनका फर्ज। खैरात में कुछ भी नहीं मिलता, हक़ के एक एक इंच
के लिए लड़ना पड़ता है।
सेंटियाकर
नस्टल्जियाने में कलम भी मनमाना हो जाता है। शुरुआती बचपन से कूदकर बुढ़ापे के
क्लासरूम में पहुंच गया। और कुछ खास उल्लेखनीय यादें नहीं हैं, सिवाय इसके कि जब
भी अपने से बड़े किसी लड़की-लड़के को कोई ऐसा काम करते (तैरते, पेड़ पर चढ़ते,
साइकिल चलाते... ) देखता तो तो सोचता ये कर ले रहे हैं तो मैं भी कर लूंगा। 5-6
साल तक पहुंचते-पहुंचते मेरा छोटा भाई मुझसे लंबा-चौड़ा हो गया। यह बात इसलिए याद
है कि उसके छोटे हो गए। हां, ब्राह्म-मुहूर्त में जगने की भी आदत पुरानी है।
हल्का-हल्का याद हैः। सुबह-सुबह बाबा की रजाई में घुस जाता और उनके साथ कई बार
गीता के श्लोक दुहराता अक्सर राम चरितमानस के दोहे-चौपाइयां। गीता के दो श्लोक समझ
में भी आ गए थे और कंठष्थ हो गए। “त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः.....” और “यदा-यदा ही
धर्मस्य ....”। मानस के तो कई दोहे-चौपाइयां कंठष्थ थे। बीच-बीच में ‘जयराम
श्रीराम जय जय राम’, कई बार दोहराते, जिसे मैं नहीं दोराता था। लगता था (रहा होगा)
एक ही बात बार बार दोहराने से क्या फायदा? इतने छोटे बच्चे को नहीं मालुम होता कि
कोई बात दुहराते-दुहराते, आदत बन जेहन में घुस जाती है। जिसे निकालने के लिए कठिन
आत्म-संघर्ष करना पड़ता है, ज्यादातर लोग यह झंझट नहीं उठाते और यथास्थिति का आनंद
लेते हैं।
28.11.2017
ईश्वर विमर्श 47 (धर्म)
Asrar Khan सिमों द बुआ से एक पत्रकार ने एक बार पूछा के जब महिलाएं खुद खुशी-खुशी पारंपरिक मूल्यों के साथ जी रही हैं तो वे उनपर अपने विचार क्यों थोपना चाहती हैं? उनका जवाब मैं अक्सर क़ोट करता हूं। उन्होने कहा कि वे इस जीवन से इसलिए खुश हैं कि उन्हें किसी और किस्म की ज़िंदगी का ज्ञान ही नहीं है, वे जीवन के दूसरे रास्तों का उन्हें भान ही नहीं है। वे किसी पर कुछ थोपना नहीं चाहतीं उन्हें जीवन के और सास्तों से भिग्य कराना चाहती हैं। हादिया के पिता के रवैये से आप समध सकते हैं वह किस माहौल में पली-बढ़ी, हो सकता है उसे किसी भगवान के बिना जीने का कोई भान ही न हो? वैसे भी भगवान की भय से मुक्ति के लिए जिस साहस और आत्मविश्वास की जरूरत और भक्तों की गालियों की सहनशीलता की उम्मीद आप सबसे नहीं कर सकते। धर्म की जड़ खत्म किए बिना धर्म नहीं खत्म किया जा सकता। हमारी धर्म से नहीं धर्म के नाम पर उंमादी लामबंदी से है; धर्मांधता से है। मार्क्स ने भी लिखा है धर्म को खत्म करने का प्रयास बचकाना है। धर्म खुशी की खुशफहमी देता है, लोगों को सचमुच की खुशी मिले और उन्हें आत्मबल का एहसास हो तो उन्हें खुशफहमी या किसी बाहरी शक्ति की जरूर नहीं रहेगी। धर्म अपने आप अप्रासंगिक होकर खत्म हो जाएगा। धर्म पर आक्रामक भाषा में हमलाकर आप हो सकता है किसी क्रांतिकारी संभावनाओं वाले युवा को अपनी संवादसीमा से दूर कर देते हैं। अनायास धर्म को विमर्श न बनाएं, बस तथ्य और तर्कपरक विश्लेषण करें। मैं भी कभी कभी तैश में कभी कभी अनावश्यक आक्रामक भाषा का प्रयोग कर देता हूं। यह अलाभकर है। आज के फासीवादीव आतंक के माहौल में मुद्दे और प्राथमिकताएं बदल गयी हैं।
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