ज़िंदगी एक अमूर्त विचार है
जिसके कई कई प्रकार हैं
अमूर्त नहीं पैदा होता किसी निर्वात से
और सार्वभौमिक बन जाता किसी दैवीय प्रकाश से
पैदा होता विचार किसी खास और दृष्टिगोचर पदार्थ से
पूछो अगर किसी धनपशु से कि जिंदगी है क्या?
प्रजातिक दोगलेपन में बोलेगा नहीं सच
कि उसकी ज़िंदगी का मतलब है
लूट-खसोट से भरना तिजोरी
कहेगा जिंदगी मतलब
देश की सेवा और सदाचार
राजनेता तो दोगलेपन के जलाशय में नहाता है
लुटाता है देश धनपशुओं को
और बताता है ज़िंदगी का मतलब
सबका विकास सबका साथ
नहीं है दोगलेपन पर शासकवर्गों का एकाधिकार
लंपट सर्वहारा भी होता है इस रोग का शिकार
पूछो किसी बजरंगी लंपट सर्वहारा से कि क्या है ज़िंदगी?
कभी नहीं कहेगा कि मकसद है ज़िंदगी का गोरक्षी आतंकवाद
ऐलान करेगा कि फैला रहा है वह गोपुत्रीय राष्ट्रवाद
जिंदगी क्या है के जवाब हैं अनंत
विचार के प्रकारों का न आदि है न अंत
पूछो ग़र यह सवाल एक इंकिलाबी से
मुक्त है जो कथनी-करनी के दोगलेपन की खराबी से
देगा वह साफ और सच्चा जवाब
मकसद-ए-ज़िंदगी है एक समतामूलक समाज
नामुमकिन हो जिसमें शोषण-दमन का रिवाज।
(ईमि : 827.07.2017)
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