Saturday, July 29, 2017

बेतरतीब 16 (गोरख पांडे को याद करते हुए)

एक ग्रुप में गोरख पांडे से संबंधित विेमर्श में अपने कमेंट्स का संकलन शेयर कर रहा हूं। कुछ कॉपी करने के पहले पोस्ट कर दिया था वे कॉपी नहीं हो पाए।
मैं आखिरी दिनों में लगभग हर हफ्ते मिलता था। अवसाद खत्म नहीं हो रहा था। अंतिम मुलाकात, (अंत से 3-4 दिन पहले) में वे बहुत खुशमिजाज और उत्साहित थे बहुत दिनों बाद सार्त्र के दर्शन की प्रासंगिता पर हमने बात की। लाइब्रेरी कैंटीन चाय के लिए चलने के प्रस्ताव पर उन्होने कहा, नहीं साथी मैं एन्ज्वाॉय नहीं कर पाता। फिर फ्रांसिस को कमरे में लाने को सांभर-बड़ा और चाय बोलकर आया। मैंने 'बीसवीं सदी' सुनने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि उनकी नई कविता सुनूं। शायद वह उनकी अंतिम कविता थी। आखिरी दिनों में गोरख गज़लें लिख रहे थे। उस कविता में मौत का जिक्र था लेकिन हताशा या निराशा कतई नहीं थी। नामवर सिंह और उनकी गाइड रही सुमन गुप्ता की क्रांतिकारी समझ पर कुछ चुटकुले सुनाया, मेरे लिए गोरख का यह नया साहित्यिक रूप था। मैंने हिंदी अंग्रजी ब्लिट्ज के लिए एक एक लेख लिखे थे। साथी, आपने तो नास्टैल्जिक यादों की दुनिया में ढकेल दिया। उर्मिलेश का फोन आ रहा है, वह भी जसम केी संस्थापना सम्मेलन में था। उससे निपटकर फिर थोड़ा और।

दोनों लेखों को टाइप कराकर सॉफ्ट कॉपी सेव करना है। वैसे थे वे जो भी गीत फरमाइश करो मजा लेकर सुना देते थे। लेकिन कभी कभी नखड़े करते थे तो हम लोग अपने तरह से उसे सुनाने लगते, डांटते कि तुम लोगों को कविता पढ़ने का सऊर नहीं है और फिर सुनाते। बाबा(नागार्जुन) के साथ भी हम लोग यही करते थे, उनकी डांट आशिर्वचन लगती।
गोरख को कभी कभी हैल्यूसिनिसेन होता था उन्हें लगता सामने या बगल वाला आदमी उनपर हमला करने वाला है।
एक बार हम लोग 620 (बस) में किसी काम से कनाटप्लेस जा रहे थे। उनके पीछे इलाहाबाद के एक साथी (शायद रामजी राय) खड़े थे। एकाएक उन्होंने साथी को पीछे धक्का दिया कि मेरे ऊपर क्यों चढ़े आरहे हो? लेकिन समझाने पर तुरंत मान जाते और खेद प्रकट करते।

एक बार हम लोग लाइब्रेरी कॉरीडोर में बैठे चाय पी रहे थे। वे पेरिस कम्यून की किसी घटना का विश्लेषण कर रहे थे, तभी दुकान का लड़का खाली कप लेने आया, उस पर पैर चला दिया, लगा नहीं। कहने लगे ऊपर चढ़ा आ रहा था, समझाने पर कि ऐसा नहीं था, लड़के को खोजकर लाए और माफी मांगा। एक बार एक टुच्चे ने चांटा मार दिया था हम लोगों ने जवाब में उसे पीटा नहीं सिर्फ जलील किया।
उनकी थेसिस के परीक्षक वही थे जो उनकी गाइड के। गोरख की थेसिस (सार्त्र के अस्तित्ववाद पर) पर एक लाइन का कमेंट था। यह एक मौलिक काम है (दिस इज ऐन ओरिजिनल वर्क)।

1983-84 में समझदारों का गीत और यह खूनी पंजा किसका है, गोरख ने चाय की अड्डे बाजियों में लिखा था बातचीत करते हुए। समझदारों का गीत का शीर्षक कुछ और था, बहस मुवासे के बाद यह शीर्षक रखा। पढ़े-लिखे मध्यवर्ग, खासकर सुविधाजीवी बुद्धिजीवियों पर इतना सटीक कमेंट बस इब्ने इंशां का कुछ कहने का भी वक्त नहीं, कुछ न कहो खामोश ही लगता है।
कई फंसने में मजा आता है। जनसंस्कृति का विचार और नामकरण गोरख पांडेय का ब्रेन चाइल्ड था। स्थापना सम्मेलन में एक जाने-माने प्रगतिशील साहित्यकार भारत की प्राचीन प्रगतिशील कला-साहित्य की परंपराओं की बात करने लगे. मुझसे रहा नहीं गया और पूछ दिया कि बौद्ध परंपराओं की बात कर रहे हैं या तो वेटलिफ्टिंग या तीरंदाजी से औरत हासिल करने, अग्नि परीक्षा, संबूक बध महिमामंडित करने वाली परंपराों की?
यह कमेंट माला समझदारों के गीत की अंतिम पंक्तियों से खत्कम करता हूं वाकी फिर कभी।
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर हो और जनता समझदार
हम समझते हैं
लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते
क्यों नहीं कुछ कर सकते
यह भी हम समझते हैं।
मैं ने हिंदी लेख की शुरुआत, 'जागते रहो सोने वालों की गुहार लगाने वाला जनकवि एक शाम सदा के लिए सो गया, आत्महत्या की विधा से' से किया था और अंत 'तुमारी आंखें हैं तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर, इस दुनियां को जितनी जल्दी हो बदल डालो' के उद्धरण से। अंग्रेजी लेख भी इसी उद्धरण के अंग्रजी अनुवाद से किया था। ‘Your eyes are the surging sea of pain, change this world at the earliest.

अब इतनी बातें हो गयीं तो एक और बात, जेयनयू सिटी सेंटर में गोरख की श्रद्धांजलि सभा थी। एक प्रगतिशील, 'नामवर' साहित्यकार ने कहा कि आत्महत्या बहादुरी का काम है, गोरख ने वह बहादुरी करके दिखा दिया। इतना क्रोध आया कि चिल्लाऊं कि तुम क्यों कायर बने हुए हो, लेकिन अवसर नहीं था, इसका।

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