मार्क्सवादी हूं कि नहीं मैं नहीं जानता लेकिन लेनिन की परिभाषा में कम्युनिस्ट नहीं हूं क्योंकि लगभग 3 दशक से किसी पार्टी में नहीं हूं। मार्क्सवाद एक गतिमान विज्ञान है, एंगेल्स ने कहा है कि मार्क्सवादी मार्क्स के उद्धरण देना वाला नहीं बल्कि वह है जो खास हालात में वही करे जो मार्क्स करते।वर्चस्व और शासक का हमला हमेशा की स्तरों पर होता है, इसलिए प्रतिरोध भी हर स्तर पर होना चाहिए। नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजी, जैसाकि विश्वबैंक के रखैल नव-राजनैतिक अर्थशास्त्री मानते है कि संकट की इस घड़ी मे अधिनायकवादी शासनों की बैशाखी पर ही खड़ी रह सकती है, इस लिए सभी मोर्चों पर लड़ने की जरूरत है, लेकिन मार्क्स का कहना है कि जनता अपनी लड़ाई खुद लड़ेगी लेकिन उसके लिए सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की जरूरत है जो अभी तो मोदी-योगी मय है। तीनों मोर्चों पर -- आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक -- लड़ना पड़ेगा, जयभीम लाल सलाम नारे को सैद्धांतिक संगठनात्मक रूप देना पड़ेगा। एक बार जनता लड़ाई के लिए मन बना ले, संशोधनवादी खुद-ब-खुद अदृश्य हो जायेंगे। लंबा रास्ता है, नई शुरुआत की जरूरत है।
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Jp Narela जी, डा. अंबेडकर संसदीय तरीकों से राजकीय पूंजीवाद के माध्यम से समाज सुधार चाहते थे। राजकीय पूंजीवाद ही साम्यवाद का संक्रमलकालीन चरण है। बुद्ध या मार्क्स पढ़ने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि बाबा साहब का मार्क्सवादी समाज के सपने से कोई अंतर्विरोध नहीं है, तरीके से है। मार्क्स की ही तरह डॉ. अंबेडकर भी शोषणविहीन समतामूलक समाज के हिमायती थे। यूरोप में नवजागरण तथा प्रबोधन क्रांतियों से समाज में जन्म आधारित विभाजन समाप्त हो गया था इसके समतुल्य किसी आंदोलन के अभाव में भारत में जन्मजात (जातीय) विभाजन बना रहा। यहां की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद को विज्ञान और दर्शन के रूप में उसके सिद्धांतों को यहां की परिस्थितियों में अनूदित करने की बजाय मॉडल के रूप में अपनाया। सामाजिक आंदोलन का एजेंडा कम्युनिस्ट पार्टियों ने अलग से नहीं उठाया जिसे अंबेडकर ने उठाया। इसीलिए आज दोनों की एकता की जरूरत है। आपके पढ़ने और आपकी विद्वता पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया, यदि ऐसा लगा हो तो क्षमा प्रार्थी हूं। मैं भी किताबों से ही मार्क्सवादी बना।
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