मैंने एक पोस्ट डाला है, 1871 में कम्यून के ब्लांकीवादी और प्रूदोंवादी नेताओं के पास सैद्धांतिक स्पष्टता होती या वे मार्क्स के संदेशों के अनुसार रणनीति बनाते तो शायद दुनिया का इतिहास अलग होता, लेकिन यह त्रासदी 1848 से भी भयानकतम साबित हुई गणतंत्र और फ्रांसीसी गौरव का पाखंड करने वाले हरामजादे थियर और उसके चट्टे-बट्टे; कुत्ते-बिल्लियां पेरिस पर हमला न करने की कसमों के बावजूद बिस्मार्क तलवे चाटकर सैन्य शक्ति अर्जित कर अपनी ही राजधानी पर तोपों से एक हफ्ते तक बमबारी करते रहे। यह सप्ताह इतिहास में काले सप्ताह के रूप में जाना जाता है। 30,000 मजदूरों को कत्ल कर दिया गया हजारों को बिना मुकदमा चलाए देशनिकाला दे दिया गया, हजारों को उपनिवेशों में भेज दिया गया। सब राष्ट्रवाद के नाम पर, पेरिस के मजदूर राष्ट्र के दुशमन थे। क्रांति को बर्बरता से कुचलने के बाद भी गस्ती पुलिस और 'देशभक्त' भीड़ किसी को भी कम्यून का सहयोगी कह कर छिट-पुट मारती रही वैसे ही जैसे गोरक्षक और हिंदू वाहिनी मार्का देशभक्त पुलिस की उपस्थिति में किसी पर भी गोभक्षक या पाकिस्तान की क्रिकेट में जीत का जश्न मनाने वाला कह कर हमला कर देती है।यदि कम्यून के नेताओं के पास सैद्धांतिक सूझबूझ होती और नेसनल गार्ड्स के पास सामरिक रणनीति होती तो सर्वहारा जीतता, वह सामाजिक चेतना के स्तर का एक स्वरूप था। बावजूद इसके पेरिस कम्यून सर्वहारा क्रांति का संदर्भ बिंदु बना रहेगा। कम्यून के शहीदों को लाल सलाम। साथी इतिहास की समीक्षा पर मैं इसी लिए जोर देता हूं कि सैद्धांतिक समझ क्रांति की पूर्व शर्त है।
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