Tuesday, July 4, 2017

समाजवाद 5

रूसी क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद पर लेखमाला: (भाग 5) 

मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय लामबंदी
समाजवादी अंतर्राष्ट्रीयता के दौर
ईश मिश्र
सभ्यता के इतिहास की वर्ग संघर्षों के इतिहास के रूप में व्याख्या से शुरू कर कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने  तथ्य-तर्कों के आधार पर  पूंजीवाद के भूमंडलीय चरित्र को रेखांकित करने के साथ दुनिया के मजदूरों की एकता का नारा दिया, जिसे मार्क्स ने कामगरों के अंतर्राष्टीय संघ के पहले संबोधन में भी सभी देशों के मजदूरों की एकता को रेखांकित किया।  कथनी-करनी का अंतर्विरोध इतिहास के हर युग के शासक वर्गों का साश्वत अंतर्विरोध है। पूंजीवाद सर्वाधिक विकसित वर्ग समाज है, इसलिए यह जटिलताओं और कुटिलताओं से पूर्ण सिद्धांत और व्यवहार के अंतर्विरोध में भी सर्वोपरि है। पूंजीपति वर्ग और उसके जैविक बुद्धिजीवी इस अंतर्विरोध को छिपाने का प्रयास करते हैं और निजी संपत्ति की सुरक्षा राष्ट्रीय गरिमा से जोड़ देते हैं। जैसा कि इस श्रृंखला के पहले लेख में बताया गया है कि सामंतवाद के खंडहरों पर उगे पूंजीवाद के राजनैतिक उपकरण के रूप में, राजशाही की जगह आधुनिक राष्ट्र-राज्य का उदय हुआ और सत्ता की वैधता के श्रोत के रूप में ईश्वर के और वैधता की विचारधारा के रूप में धर्म के विलुप्त हो जाने के बाद के वैधता के नए श्रोत के रूप में जनता की अमूर्त अवधारणा स्थापित हो गई और विचारधारा के रूप में धर्म की जगह राष्ट्रवाद। यहां पूंजीवाद के अंतर्विरोधों के विस्तार में जाने की तो गुंजाइश है जरूरत, मकसद सिर्फ यह इंगित करना है कि विश्व-व्यापार का विस्तार; किसानों, कारीगरों की श्रम के अपने साधनों से बेदखली और भूमंडलीय, औपनिवेशिक लूट इसके उदय के प्रमुख कारकों में है, (जिसकी मार्क्स ने पूंजी (खंड 1) में 'तथाकथित आदिम संचय' शीर्षक के तहत सटीक समीक्षा की है) लेकिन राष्ट्रवाद इसके शासन की विचारधारा। इसीलिए मार्क्स और उनके समकालीन समाजवादी विचारक शुरू से ही मजदूरों की भूमंडलीय एकजुटता के हिमायती थे। समाजवाद, पूंजीवाद की वैकल्पिक प्रणाली है और पूंजीवादी शोषण-दमन भूमंडलीय है इसलिए प्रतिरोध भी भूमंडलीय ही होगा।
सभ्यता को दोगलेपन का पर्याय मानने वाले रूसो जहां राज्य द्वारा धनपशुओं की संपत्ति की सुरक्षा जनती की ताकत से करने पर तंज कसते हैं, वहीं उन्ही के समकालीन, पूंजीवाद के प्रमुख प्रवक्ता; इतिहास को मुनाफा कमाने की गतिविधियों का अनचाहा परिणाम तथा समाज को एक बाजार मानने वाले ऐडम स्मिथ तिजारती पूंजीपतियों की संपत्ति को राष्ट्र की संपत्ति बताते हैं। उनका कहना है कि समाज मे सब व्यापारी हैं जिनके पास बेचने को और कुछ नहीं है उनके पास अपनी चमड़ी है, जिसे मार्क्स ने श्रम-शक्ति के रूप में परिभाषित किया। शासक वर्ग समाज के मुख्य अंतर्विरोधआर्थिक अंतर्विरोधकी धार कुंद करने के लिए कृतिम आंतरिक अंतर्विरोधों का हौव्वा खड़ा करता है। पूंजीवाद का चरित्र शुरू से ही भूमंडलीय रहा है। राष्ट्रवाद का हौव्वा सबसे प्रभावशाली और भीषण होता है, मार्क्स ने फ्रांस में वर्ग-संघर्ष (1850) , एटींथ ब्रुमेअर ऑफ लुई बोर्नापार्ट (1852) तथा फ्रांस में गृहयुद्ध 91871)  में में इसकी विस्तृत समीक्षा की है। पूंजीवाद के जैविक बुद्धिजीवी, उदारवादी सिद्धांतकार और अर्थशास्त्री पूंजीवाद के चलते पैदा हुई नई असमानताओं के औचित्य के लिए है मनुष्य की समानता और धरती पर साझे अधिकार की संकल्पना का सहारा लेते हैं तथा पूंजीपतियों द्वारा अंतरराष्ट्रीय मुनाफाखोरी और लूट के औचित्य के लिए राष्ट्रवाद की विचारधारा का। इसके जवाब में मार्क्स ने दुनिया के मजदूरों की एकजुटता का नारा दिया तो लेनिन ने युद्ध के समय बंदूकें अपने शासकों पर तान देने का आह्वान किया था।   
    अपने जन्म के समय से ही पूंजीवाद का चरित्र भूमंडलीय (अंतर्राष्ट्रीय) रहा है, जो पूंजीवादी विकास के मौजूदा नवउदारवादी चरण में बिल्कुल नग्न दिखता है। 1930 के दशक के उदारवादी पूंजीवाद का संकट पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों के अमानवीय शोषण के फलस्वरूप आमजन की बेरोजगारी और बदहाली के चलते क्रयशक्ति के अभाव में अतिरिक्त औद्योगिक माल का संकट था। नवउदारवादी पूंजीवाद का संकट अतिरिक्त (आवारा) पूंजी का संकट है जो लाभदायक निवेश के निष्कंटक भूगोल की तलाश में रहती है। साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी की भूमंडलीय लूट के विरुद्ध कामगरों की भूमंडलीय लामबंदी की जरूरत के मद्देनजर, दुनिया के कामगरों की पहली लामबंदी की याद बहुत सिद्दत से आती है।
    मार्क्स के बारे में कई लोग कहते हैं कि वे महज पुस्तकालयों और अभिलेखागारों में रहने-लिखने वाले क्रांतिकारी थे, जबकि मार्क्स ने अपनी क्रांतिकारी बौद्धिक यात्रा की शुरुआत में ही अपनी सक्रिय क्रांतिकारिता की घोषणा कर दी थी. ‘दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से दुनिया की व्याख्या की है, जरूरत उसे बदलने की है (थेसेस ऑन फॉयरबाक़, 1845) 1848-49 की क्रांति में मार्क्स और एंगेल्स की सक्रिय भागीदारी की चर्चा पहले की जा चुकी है। 1864 में कामगरों के अंतर्राष्ट्रीय संघ के गठन और उसके नेतृत्व ने मार्क्स को दुनिया के मजदूरों की एकता के नारे के व्यवहारिक प्रयोग का एक मंच और मौका प्रदान किया। पुस्तकालय और अभिलेखागार दुनिया को समझने और बदलने के सिद्धांतों के अन्वेषण की प्रयोग शालाएं थीं, राजनैतिक संघर्ष क्रांतिकारी सक्रियता के मंच। इंटरनेसनल के गठन और उसके बाद उसके प्रमुख सिद्धांतकार के रूप में उनकी व्यस्तता इतनी बढ़ गयी कि 1959 में शुरू की गयी पूंजीवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा, पूंजी के लेखन के लिए, उन्हेंसमय चुरानापड़ता था। 

     कामगरों का अंतर्राष्ट्रीय संघ (इंटरनेसनल वर्किंगमेन्स असोसिएसन)
 पहला इंटरनेसनल
   पृष्ठभूमि
1840 के दशक से ही यूरोप के विभिन्न देशों के विभिन्न समाजवादी समूह और मजदूर संगठन एक दूसरे से संपर्क और समन्वय की फिराक में थे। 1855 मेंबिखर चुकेचार्टिस्ट आंदोलन के एक नेता अर्नेस्ट जोन्स ने रूसी प्रवासी नेता हर्ज़ेन के साथ मिलकर अंतर्राष्ट्रीय परिषद नाम के एक रहस्यमयी संगठन का गठन किया जिसका मार्क्स और इटली के राष्ट्रवादी नेता मज्जिनी दोनों ने बहिष्कार किया। मज्जिनी ने समाजवाद से अरुचि के चलते इसका बहिष्कार किया तथा उनका संगठन यंग इटली  इससे दूर रहा। मार्क्स ने हर्जन के विचारों से असहमति के चलते बहिष्कार किया। हर्जन का मानना था कि मानव मुक्ति रूसी किसानों के कम्यून के रास्ते से ही संभव है। इस परिषद को यूरोप के जनतंत्रवादियों और ‘लाल गणतंत्रवादियों’ से संपर्क साधने के लिए, 1846 मेंहार्ने की पहल पर गठित फ्रैटर्नल डेमोक्रेट्स के वारिश के रूप में देखा जा सकता है। बेलजियम के डेमोक्रेटिक असोसिएसन ने इसका सहयोग किया था। उस समय ब्रुसेल्स में प्रवासी कार्ल मार्क्स भी इस असोसिएसन के सदस्य थे। बचे-खुचे चार्टिस्टों की यह परिषद 1859 में गुप-चुप गायब हो गयी। 1859 में कार्ल मार्क्स ने राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान ( कंट्रीब्यूसन टू  क्रिटिक़ ऑफ पोलिटिकल कॉनॉमीजिसे 3 खंडों में लिखी पूंजी का पूर्वकथ्य माना जाता है और जिसका प्राक्कथनऐतिहासिक भौतिकवाद के समझ की कुंजी। 
1862-64 के दौर में इंगलैंड और फ्रांस के मजदूर संगठनों तथा समाजवादी समूहों के प्रमुख सरोकारअमेरिका में गृहयुद्धगुलामी और नस्लवाद और पोलैंड जैसे देशों में राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलनों जैसी अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य की परिघटनाएं थीं। इन संगठनों ने पोलैंड के स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन में अभियान चलाया। जैसा कि ऊपर कहा गया हैजुलाई, 1863 में पोलैंड के आंदोलन से एकजुटता अभिव्यक्त करने के लिए लंदन में फ्रांस और इंगलैंड के समाजवादी और मजदूर नेताओं की एक बैठक में कामगरों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन की जरूरत महसूस की गयी और अगले वर्ष प्रथम इंटरनेसनल का गठन हुआ। कई इतिहासकार इंटरनेसनल की जड़ें 1859-62 के दौरान निर्माण मजदूरों द्वारा तालाबंदी और हड़ताल के आंदोलनों मे खोजते हैंजिनके परिणामस्वरूप 1860 में लंदन ट्रेड कौंसिल का गठन हुआ था। इन आंदोलनों की प्रमुख मांगों में प्रतिदिन 9 घंटे के काम की मांग प्रमुख थी। इस विशुद्ध मजदूर संगठन के कई प्रमुख सदस्यआगे चलकर इंटरनेसनल के संस्थापक सदस्य बने। गौरतलब है कि 8 घंटे के काम के दिन की मांगइंटरनेसनल के कायक्रम का अभिन्न हिस्सा था और शिकागो के टेक्सटाइल मजदूरों की बहुचर्चित हड़ताल की प्रमुख मांग यही थी। 
  1863 की उपरोक्त बैठक के फैसले के अनुसारविभिन्न समाजवादीअराजकतावादी तथा साम्यवादी राजनैतिक समूहों ने लंदन के सेंट मार्टिन हॉल में, 18 सितंबर 1864 को एक सार्वजनिक सभा में दुनिया में सर्वहारा के पहले अंतर्राष्ट्रीय संगठन – मजदूरों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन -- का गठन कियाजिसका पहला अधिवेशन 1866 में जेनेवा में हुआ और जिसे पहले इंटरनेसनल नाम से जाना जाता है। मजदूर संगठनों और समाजवादी समूहों की एकजुटता की 1840 के दशक में शुरू प्रक्रिया की परिणति 1848 का असफलसंयुक्त शांतिपूर्ण प्रदर्शन में हुईजो भावी समाजवादी एकजुटता का द्योतक था। क्रांति-प्रतिक्रांति के शोर में दबी मजदूर अंर्राष्ट्रीयता की भावना 1860 के दशक के शुरू होते होते मुखर होने लगी। 1848 की क्रांतियों के बाद विभिन्न देशों के निर्वासित बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारी नेताओं की शरणस्थली बने लंदन में 1864 में मजदूरों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन या पहले इंटरनेसनल की स्थापना इसी प्रक्रिया की तार्किक परिणति थी।
   बुनियादस्थापना सम्मेलन 
1848 की क्रांति-प्रतिक्रांतियों के बाद समाजवाद के खेतों में पसरे सन्नाटे को तोड़तीइंटरनेसनल की स्थापना की खबर से यूरोप और अमेरिका के शासक वर्गों में हड़कंप मच गया था। शीघ्र ही इंटरनेसनल की सदस्यता 80 लाख तक पहुंच गयी। इस बैठक में इंगलैंड के ओवनवादियोंफ्रांस से पियरे-जोसेफ प्रूदों और ब्लांकी के अनुयायियोंआयरलैंड तथा पोलैंड के राष्ट्रवादियोंइटली के गणतंत्रवादियोंजर्मन समाजवादियों समेत यूरोप के लगभग सभी वामपंथी धाराओं के प्रतिनिधियों ने शिरकत की। सभा की अध्यक्षता लंदन विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसरएडवर्ड स्पेंसर बीज्ली ने कीया। उन्होने सरकारों की हिंसकदमनकारी नीतियों की भर्त्सना करते हुए दुनिया के मजदूरों के संगठन की जरूरत पर जोर दिया। इंटरनेसनल की स्थापना अधिवेशन के आयोजन में 46 साल के जर्मनप्रवासी लेखक-पत्रकार कार्ल मार्क्स की कोई भूमिका नहीं थी ही उन्हें बहुत लोग जानते थे और  ही तब तक बहुत लोगों ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र पढ़ा था। कम्युनिस्ट लीग लगभग बिखर चुकी थी। उनकी शिरकत निजी रूप से थी। वे इस सभा में कुछ बोले नहीं बस सुनते रहे। संगठन का मुख्यालय लंदन बना और मार्क्स को संगठन के कार्यक्रमसंविधानदिशानिर्देश तथा घोषणापत्र तैयार करने के लिए 21 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति में मनोनीत किया गया। तब से वे संगठन के प्रमुख सिद्धातकार बन गए और मार्क्सवाद समाजवादी विमर्श की धुरी।
 मजदूरों के अंतर्राष्ट्रीय मंच की योजनापोलैंड समेत तमाम राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनोंइटली के एकीकरण और अमेरिकी गृहयुद्ध में गुलामी के समर्थक दक्षिण के विरुद्ध उत्तर के संघर्षों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए आयोजित फ्रांसीसी और अंग्रेजी क्रांतिकारियों की एक बैठक में बनी थी। संगठन की जरूरत इसलिए भी महसूस हुई कि हाल के दिनों में पूंजीपति प्रवासी मजदूरों की नियुक्ति की खेल से फ्रांसीसी और अंग्रेजी मजदूरों को एक दूसरे के विरुद्ध इस्तेमाल कर रहे थे। इन दोनों देशों के ट्रेड के यूनियन नेता और समाजवादी समूह बांटो और राज करो की इस नीति का जवाब दुनिया के मजदूरों के एकीकृत संगठन की स्थापना से दिया।
आज सूचना क्रांति की इस साइबर सदी में जब दुनिया के कोने-कोने के समाजवादी इतनी सहजता और सरलता से संवाद कर सकते हैंकामगरों की भूमंडलीय एकता या संगठन की बात अटपटी भले लगेलेकिन 1864 में कामगरों के अंतर्राष्ट्रीय सगठन की स्थापना एक नई ऐतिहासिक पहल थी। यह 1860 के दशक में यूरोप के मजदूर आंदोलनों में एक नए आत्मविश्वास और धीरे धीरे बढ़ती वर्ग चेतना का भी परिचायक था। सम्मेलन द्वारा मनोनीत इसकी कार्यकारिणी समिति ने संगठन के सैद्धांतिक दस्तावेजों को कार्यरूप देने के लिए एक उपसमिति का गठन किया जिसने सामूहिक लेखन का यह काम कार्ल मार्क्स को सौंप दिया। संगठन के सारे बुनियादी दस्तावेज मार्क्स की ही कलम की उपज हैं। 5 अक्टूबर को एक आला समिति (जनरल कौंसिलका गठन हुआ जिनमें अन्य राष्ट्रीयताओं के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया गया। मार्क्स समिति में जर्मन प्रतिनिधि के रूप में शामिल किए गये। संस्थापना सम्मेलन में सभी प्रतिनिधि पुरुष ही थे। 1865 में जनरल कौंसिल की एक बैठक में महिला प्रतिनिधियों की सदस्यता की जरूरत महशूस की गयी। 16 अप्रैल 1867 की आम समिति की एक बैठक में धर्मनिरपेक्ष वक्ता हैरियट लॉ का महिलाओं के अधिकारों पर एक पत्र पढ़ा गया और उनसे समिति में शामिल होने के आग्रह का फैसला किया गया। 25 अप्रैल को वे इंटरनेसनल की आम समिति में शामिल कर ली गयींअगले 5 सालों तक वे एकमात्र महिला सदस्य थीं.
संगठन तो बन गया लेकिन विभिन्न मतावलंबी संस्थापक सदस्यों को इसके आगे के विकास के बारे में कोई स्पष्ट समझ नहीं थी। इंटरनेसनल के सभी धड़ों – ओवनवादियोंमज्जिनी के अनुयायियोंप्रूदों के पारस्परिकतावादी समर्थकोंइंगलैंड के ट्रेडयूनियनवादियों तथा ब्लांकी के समर्थकों – की राय को संयोजित कर मार्क्स ने इसके कार्यक्रम और संगठनात्मक संरचना की रूपरेखा  तैयार किया। इस दस्तावेज को इंटरनेसनल में मार्क्स के उद्घाटन भाषण के रूप में जाना जाता है। इसे जनरल कौंसिल ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया जिसे 1866 में जेनेवा में पहले सम्मेलन में पेश किया गया। मार्क्स और एंगेल्स 1848-51 की क्रांति-प्रतिक्रांतियों के अनुभव से पहले ही इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि मजदूरों की मुक्ति की सफल क्रांति लिए दुनिया के मजदूरों की अपनी स्वतंत्र पार्टी अपरिहार्य है।
कम्युनिस्ट घोषणापत्र जहां सीधे पूंजीवादी शोषणवर्ग संघर्ष और साम्यवाद की बात करता है तथा सर्वहारा के क्रांतिकारी संगठन और क्रांति का आह्वान करता हैवहीं उद्घाटन भाषण मजदूरों के खुले जनसंगठनों के नेतृत्व में जनांदोलनों पर जोर देता है। जैसा कि मार्क्स ने एंगेल्स को लिखे पत्र में स्वीकारा है कि 1848 की तरह क्रांतिकारी उथल-पथल के दिन अभी दूर हैं।  जैसा कि एंगेल्स को सफाई देते हुए मार्क्स ने लिखा था, "उन्हें अपने विचार इस रूप में पेश करना था जो मजदूर आंदोलनों के मौजूदा मिजाज से मेल खाता हो।..... हमें अपने काम में सुदृढ़ होना है और तरीकों में लचीला" मजदूर संगटनों की तत्कालीन सामाजिक चेतना के स्तर को देखते हुए कम्युनिस्ट घोषणापत्र की आक्रामक भाषा की तुलना में इंटरनेसनल के घोषणापत्र में भाषा की शालीनता और स्वीकार्यता पर जोर दिया। इस दस्तावेज मेंतत्कालीन वस्तुगत स्थियों के मद्देनजरसंगठन को व्यापक सामासिकता और स्वीकार्यता देने के लिए इसके नियम भले ही लचीले हों लेकिन क्रांति की वांछनीयता और अपरिहार्यता को नजरअंदाज नहीं किया गया। "जमीन और पूंजी के मालिक अपने आर्थिक एकाधिकार की जड़ें जमाने के लिए हर राजनैतिक विशेषाधिकार का प्रयोग करते हैं,... इसलिए रादनैतिक सत्ता पर मजदूर वर्ग का अधिकार जरूरी है।इसमें सर्वहारा क्रांति का इशारा है लेकिन ऐलान नहीं। यह सभी को इसलिए स्वीकार्य हो गया क्योंकि सबने इसके अपने अर्थ लगायाजैसे इंग्लैंड के मजदूर इसे मताधिकार की लड़ाई समझ बैठे। मार्क्स एटींथ ब्रूमेयर में लिख चुके थे, "इंसान अपना इतिहास खुद बनाता हैलेकिन वह जैसा चाहे वैसा नहींअपनी चुनी हुई परिस्थितियों में नहीं बल्कि पिछली पीढ़ियों से विरासत में मिली परिस्थियों में"
   वैचारिक विविधता और गुटबाजी
वैचारिक विविधता और  के चलते इंटरनेसनल शुरू से ही गुटबाजी का शिकार रहा। दर-असल इसके अलग-अलग मतावलंबी आधे दर्जन घटकों द्वारा संयुक्त मोर्चे का गठन ही एक ऐतिहासिक आश्चर्य लगता है। लंदन ट्रेड कौंसिल ने शुरू में इसे अपना ही विस्तार माना मगर बाद में इसका हिस्सा बनने से इंकार कर दियायद्यपि इसके कई सदस्य निजी रूप संगठन में शरीक हुए इसके कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। संगठन के जेनेवा में पहले अधिवेसन में फ्रांस से ब्लांकी के कुछ अनुयायी प्रूदों के समर्थकों का यह कह कर विरोध कर रहे थे कि वे बोनापर्ट के एजेंट हैं। उन्हें सभा से बहिष्कृत कर दिया गया था। फ्रांसीसी इकाई में उनके प्रतिद्वंदी प्रूदों के समर्थकों का बोलबाला था और जिनेवा सम्मेलन में बहुमत। मार्क्स का पहला विरोध प्रूदों के समर्थक परस्परवादियों की तरफ से मुखरित हुआ। वे साम्यवाद के उतने ही मुखर विरोधी थे जितने कि राज्यवाद के। मार्क्स ने उनके विरोध के बावजूद महिलाओं की सदस्यता का प्रावधान बनाया। "किसी समाज में प्रगति का मानदंडउसमें महिलाओं की सामाजिक स्थिति है"
इंटरनेसनल में वैचारिक और व्यक्तित्वगत टकरावसंगठन की कार्यशैली और काममार्क्स-बकूनिन विवाद;पेरिस कम्यून और उसमें इंटरनेसनल की भूमिका;  1872 में संगठन का मुख्यालय हेग से न्यूयार्क प्रतिस्थापित करना टूट और 1876 में संगठन के विघटन की संक्षिप्त चर्चा अगले लेख में की जाएगी। 1868 मेंसामूहिकतावादी नाम से रूसी प्रवासी मिकाइल बकूनिन के समर्थकों के इंटरनेसनल में शामिल होने के बाद संगठन 2 खेमों में बंट गयाएक के नेता बकूनिन थेदूसरे के मार्क्स। दर-असल 1864 में इसकी स्थापना के समय बकूनिन ने इसे नज़रअंदाज किया और 1868 में इसमें शामिल होने के बाद इसे अपने गुप्त संगठन के सार्वजनिक मंच में तब्दील करने की कोशिस की नतीजतन, 1872 में इंटरनेसनल दोफाड़ हो गयाजिसकी चर्चा आगे की जाएगी। मतभेद के प्रमुख मुद्दे थे समाजवाद की समझ और उसे हासिल करने की रणनीति। एक अन्य रूसी अराजकतावादीक्रोपोत्किन के अनुसार बकूनिन के नेतृत्व में अराजकतावादी, “संसदीय राजनीति में घुसे बिना पूंजीवाद के विरुद्ध आर-पार के आर्थिक संघर्ष के पक्षधर थे”, मार्क्स का फौरी सरोकार राजनैतिक मुक्ति थी जो मानव मुक्ति की सीढ़ी है। उनकी राय में,  समाजवाद के निर्माण के लिएराज्य पर मजदूरों का नियंत्रण अपरिहार्य है। 
   अंत मे
    मार्क्स ने राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान के प्राक्कथन में सामाजिक उत्पादन के विकास के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप होता है और विकास का चरण चैतन्य मनुष्य के प्रयास से बदलता है। विकास के उस खास चरण में वर्ग चेतना से लैस मजदूर संगठन बनाने की परिस्थियों के अभाव मेंप्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथ के विरुद्धसामाजिक चेतना के जनवादीकरण के दूरगामी मक्सद को छोड़े बिना मौजूदा हालात के अपेक्षाकृत  प्रगतिशील ताकतों का संयुक्त मंच बनाना एक ऐतिहासिक बुद्धिमत्ता थी। आज जब सारी दुनिया में प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथ आक्रामकता से मुखर है और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व का वामपंथ लचर तो सभी जनतांत्रिक और प्रगतिशील ताकतों के साझा मंच की मिशाल है पहला इंटरनेसनल। 
23.06.2017


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