1942 में कम्युनिस्टों की भूमिका के विवाद पर मैंने हिंदी अंग्रेजी में सोवियत संघ के पतन के बाद और बाबरी विद्धवंश के पहले एक-एक लेख लिखे थे, दर-असल यह अरुण शौरी और नभाटा के एक सहायक संपादक (नाम भूल रहा हूं) जैसे देशभक्त पत्रकार वामपंथियों को 1942 के हवाले इतिहास में झांकनेॆ की नसीहतें दे रहे थे, ये लेख उन्हीं के जवाब में लिखे थे। 'सांप्रदिका और इतिहास' समकालीन तीसरी दुनिया में छपा थान उसे मैंने टाइप कराके ब्लॉग में सेव कर लिया है। जब हम इतिहास की गतिमान प्रक्रिया में सहभागी होते हैं और जब हम इतिहास की समीक्षा कर रहे होते हैं, दोनों स्थिितयों में बहुत फर्क होता है। मार्क्स ने लिखा है कि हर देश के संगठन अपने कार्यक्रम और नीति-रणनीतियां वहां की विशिष्ट परिस्थियों के अनुरूप बनाएंगे, लेकिन सीपीआई ही नहीं, कॉमिंटर्न से संबद्ध दुनिया की सभी कम्यनिस्ट पार्टियां अंतरराष्ट्रीय मद्दों पर(सीपीआई के मामले में राष्ट्रीय भी) कॉमिंटर्न यानि सीपीयसयू के स्टैंड के अनुरूप अपने कार्य-क्रम-नीति रणनीतियां बनाते थे। कॉमिंटर्न की दूसरी कॉंग्रेस में औपनिवेशिक मसलों पर यमयन रॉय की बजाय लेनिन की थेसिस के अनुसार उपनिवोशों में राष्ट्रीय आंदोलनों में अपनी अस्मिता बरकरार रखते हुए, प्रगतिशील तत्वों को अपनी विचारधारा की तरफ खींचने की कोशिस करते हुए, भरपूर शिरकत करनी चाहिए। इसमें लेनिन की पैनी अंतर्दृष्टि दिखती है। इसके विपरीत यमयन रॉय की थेसिस थी कि राष्ट्रीय आंदोलन समझौता परस्त है और औद्योगिक सर्वहारा अपने अकेले दम पर बुर्जुआ डेमाक्रेटिक और सोसलिस्ट क्रांतियां साथ साथ संपन्न करेगा। उद्योग और औद्योगिक सर्वहारा लगभग नदारत थे। क्मयुनिस्ट पार्टी 1928 तक डब्ल्युपीपी के रूप में आंदोलन में शिकत करती रही। छठी (1928) कांग्रस ने रॉय की थेसिस अपना लिया और रॉय को कामिंटर्न से निकाल दिया। 6 साल आंदोलन से बार रहना पार्टी को मंहगा पड़ा। 1934 में कामिंटर्न ने यंयुक्त मोर्चा की नीति अपनाई लेकिन तब तक दो-दो मुकदमों के बाद पार्टी थोड़ा कमजोर हुआ थी और अवैध। 1942 का हवाला देने वालों से पूछिए किस पार्टी, पूरी पार्टी पर अंग्रेजी सरकार ने 2-2 मुदमें चलाए? संयोग से उसी समय कुछ प्रगतिशील कांग्रेसी युवाओं जिनमें नरेंद्र देव, जेपी जैसे कुछ मार्क्सवादी भी थे। गटन दस्तावेज इस वाक्य से शुरू होता है, "कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का गठन म4र्क्वादी विचारधारा से प्रभावित कांग्रेसियों द्वारा किया गया......." इसमें पार्टी के सदस्यों के निजीनतौर पर शामिल होने का अवसर था। नंबूदरीपाद सहसचिव थे। सब प्रदेशों में मजदूर-किसान संगठनों का निर्माण शुरू हुआ, किसान सभा और ऐटक मजबूत मंच थे। सीयसपी ने युद्धविरोधी प्लेटफॉर्म बनाया जो हिटलर के रूस पर हमले से 1942 में टूट गया और सीयसपी भी टूट गयी। सीपीआई वैध हो गयी। सॉरी, भूमिका बहुत लंबी हो गयी। अब हम अपनी ऊपर की बात पर आते हैं, इतिहास बनाने और समीक्षा की परिस्थितियों पर। यह अलग बात है कि पार्टी का स्टैंड कॉमिंटर्न निर्देशित था, यह भी अलग बात है कि पार्टी के युद्ध समर्थन से युद्ध की वास्तविक स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन हम उस स्थिति को देखें कि जापानी सेनाएं असम तक आ गयी थीं। और यह भी सच है कि बुर्जुआ उपनिवेशवाद की तुलना में बुर्जुआ फासिस्ट उपनिवेशवाद से लड़ना ज्यादा मुश्किल होता। दस्तावेजों से पता चलता है इस फैसले पर बहुत लंबी हबस हुई थी। नेताओं के पास न तो लेनिन सी अंतर्दृष्टि थी न स्वतंत्र निर्णय का आत्मविश्वास। यह नीयतगत नहीं नीतिगत गलती थी, नीयतगत नहीं। लेकिन गलती वतो थी ही जिसे आत्मालोचना के सिद्धां पर ,लकर पार्टी ने मान लिय़ा। 1942 की गलती की आलोचना की जा सकती है, भर्त्सना नहीं।
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