साथी, रवींद्र पाटवाल, पार्टी में न होना आवश्यक रूप से समय गंवाना ही नहीं है। पार्टी में नहीं रहे हैं लेकिन आंदोलनों में रहे हैं। 2 दशकों से अधिक समय से 'जनहस्तक्षेप: फासीवादी मंसूबों के विरुद्ध एक मुहिम', नामक मानवाधिकार संगठन के सदस्य के रूप में इस मोर्चे पर लगातार काम करते रहे हैं। हम लोग विस्थापन, सांप्रदायिक-जातीय उत्पीड़न के मामलों को उजागर करते रहे हैं। लेकिन इस कठिन समय में इतना नाकाफी है। आज हाशिए खिसक गयी दुनिया की पारंपरिक कम्युनिस्ट पार्टियां अप्रासंगिक हो गयी हैं, उन्होने एरिक हॉब्सब़ॉम की मार्क्स फिर से पढ़ने की सलाह नजरअंदाज कर दिया। नेताओं के निजी आचार के अलावा भारत की संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों और बुर्जुआ संसदीय पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया है। इसे मानने का साहस इनके पास नहीं है और आत्मालोचना की मार्क्सवादी अवधारणा महज औरों के लिए है, अपने लिए नहीं। सीपीयम ने अपनी कांग्रेस में दुर्गति की वस्तुनिष्ट समीक्षा की बजाय 'निष्क्रिय' सदस्यों को पर्ज करने का प्रस्ताव पारित किया, बिना इस पर बहस किए कि अतिसक्रिय निष्क्रिय क्यों हुए। इसलिए साथी जरूरत एक नए मंच की है, एक नए सैद्धांतिक समझ की है। आदर्श स्थिति तो यह होती कि सारे वामपंथी (बेदल तथा दलछुट समेत)और अंबेडकरवादी (नवब्राह्मणवादियों को छोड़कर) संगठन मिलकर मैराथन चिंतन-मनन, वाद-वावाद करते और जयभीम लाल सलाम नारे के सैद्धांतिक संश्लेषण और उस पर आधारित एक व्यापक, जनतांत्रिक साझा मंच तैयार करते! जेयनयू आंदोलन ने एक मौका दिया था, लेकिन बीच में पार्टी लाइन आ गयी। पार्टी लाइन एक मार्क्सवाद विरोधी अवधारणा है जो एक अलग भक्तिभाव पैदा करती है और 'अपने-आप में वर्ग' से 'अपने-लिए वर्ग' के रास्ते की बहुत बड़ी बाधा मार्क्स ने कहा था कि अपनी मुक्ति की जंग मजदूर खुद लड़ेगा। इस पर खुली बहस को पार्टी अनशासन के नाम पर कोई तैयार नहीं है और न ही 'जनतांत्रिक केंद्रीयता' के सिद्धांत की व्यवहार में 'अधिनायकवादी कांद्रीयता' की तब्दीली पर। पेरिस कम्यून की पराजय का प्रमुख कारण सैद्धांतिक स्पष्टता का अभाव था।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment