किसी भी निहत्थे इंसान या इंसानों के समूह पर हथियारबंद या झुंडबंद कायराना हमला सर्वथा, कठोरतम शब्दों में निंदनीय है। जो लोग कुछ रोज पहले गोरक्षकों के खूनी तांडव के विरोध में जंतर-मंतर पर 'नॉट इन माई नेम' तख्तियों के साथ प्रदर्शन में शामिल थे, वे फिर अमरनाथ तीर्थ यात्रियों पर कायराना हमले के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए फिर जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुए। लेकिन जिस ड्रआवर की दूरदृष्टि और साहस से 50 यात्री बच गए, उसकी तारीफ एक संवेदनशील इंसान, एक साहसी और प्रखर-बुद्धि ड्राइवर के रूप में होनी चाहिए; एक जगे-जमीर के इंसान को जो करना चाहिए उसने वही किया। लेकिन उसकी तारीफ में जोर उसके मुसलमान होने पर दिया जा रहा है, जिसके गंभीर विचारधारात्मक निहितार्थ हैं। इस तरह की हिंसक वारदातों से सभ्यता की आदिमता पर श्रेष्ठता पर गंभीर संदेह होता है। इस घटना में कई पहेलियां गोधरा की तर्ज पर गुजरात के आगामी चुनावों से इसके अंतःसंबंध की तरफ इशारा करती हैं लेकिन वह एक अलग विमर्श का विषय है। सलीम की मुसलमान होने में कोई भूमिका नहीं है उसी तरह जैसे किसी और की लेकिन उसकी प्रशंसा में उसकी धार्मिक अस्मिता का रेखांकन, जिसकी उसकी साहसिक भूमिका में कोई भूमिका नहीं है, प्रकारांतर से सांप्रायिकता की विचारधारा को बल प्रदान करता है। 30-35 साल पहले स्कूली बच्चों की इतिहास की एक पाठ्यपुस्तक से पाला पड़ा था जिसमें अकबर के परिचय में लिखा था कि अकबर एक मुसलमान शासक था फिर भी नेक दिल इंसान था। इस बात पर 35-40 साल पहले पढ़ी मंटो की एक कहानी (शायद सक्सेना साहब) याद आती है। 'कुछ लोग दहाड़ रहे हैं कि 1 लाख हिंदू कत्ल कर दिए गए और हिंदू धर्म का बेड़ा गर्क हो गया; कुछ और लोग उद्घोष कर रहे हैं कि 1 लाख मुसलमान मौत के घाट उतार दिए गये, इस्लाम दफ्न हो गया। हिंदू धर्म और इस्लाम का तो कुछ नहीं हुआ, यह कोई नहीं कह रहा कि 2 लाख इंसान मार दिए गए' (वैसे तो याददाश्त पर भरोसा है लेकिन हो सकता है, उद्धरण शब्दशः न हो)। सांप्रदायिकता कोई जीव वैज्ञानिक प्रवत्ति या दैविक अभिशाप नहीं है। सांप्रदायिकता धार्मिक या जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति न होकर नस्लवाद; मर्दवाद; जातिवाद... की ही तरह एक विचारधारा यानि मिथ्याचेतना है जिसे हम अपने रोजमर्रा के जीवन और विमर्श में निर्मित-पोषित करते हैं। मुसलमानो या इस्लाम से जुड़े किसी मुद्दे पर गोरक्षक मार्का देशभक्त 'मुसलमान' बुद्धिजीवियों का स्टैंड तलब करने लगते हैं, जैसे बौद्धिकता की कोई 'मुस्लिम' धारा हो। इरफान हबीब की नास्तिक होने की बेबाक घोषणाओं के बावजूद तमाम लोग उन्हें इतिहासकार की बजाय मुस्लिम इतिहासकार कहते हैं। अमेरिका में सौंदर्य प्रतियोगिता होती है और अश्वेत सौंदर्य प्रतियोगिता होती है, लेखक होते हैं और अश्वेत लेखक होते हैं। विचारधारा की खासियत है कि वह उत्पीड़क और पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। उसने इस लिए नहीं बचाया कि वह मुसलमान था, बल्कि इंसान था और कुशल और बुद्धिमान ड्राइवर. काश! सब लोग हिंदू-मुलमान की जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता की प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर इंसान बन पाते।
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