उस वक्त की बात है जब लिखी गयी थी यह कविता
चहकती थी हर शाख और महकती थी हर दिशा
मौसम में थी जीने-खाने की सहजता
सीमित कमाई से भी था घरबार चलता
बिछाकर सरकार ने नोटबंदी का भयानक जाल
लूट लिया मौसम से खून-पशीने बना जान-माल
बंद कर दिया है दिशाओं ने महकना
और शाखों ने चहकना
छा गया है दिशाओं पर नोटबंदी का घटाटोप
सरकार लगा रही है नंगे-भीखों पर कालाबाजारी के आरोप
शाखाएं ऊंघ रही हैं एटीम की लंबी कतारों में
भूल गए हैं खग-मृग झूमना, फुदकना और चहकना
लेकिन ये दिशाएं महकना भूली नहीं हैं
शाखाओं के तेवर में चुप रहना नहीं है
फिर से मंहकेंगी दिशाएं और चहकेंगी शाखाएं
नोटबंदी के फरेब की टूटेंगी मृगमरीचिकाएं
(यों ही)
(ईमि: 20.12.2016)
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