धर्म जहां शासक वर्गों के वर्चस्व का हथियार रहा है वहीं कष्ट के अभिशप्त की राहत का (या राहत के भ्रम) का श्रोत भी रहा है और प्रतिरोध का तर्क भी. 17वीं-18वीं शताब्दी के गृहयुद्धों में ईश्वर की अवधारणा और ग्रंथों की अलग-अलग व्याख्याएं ही मुख्य मुद्दा था. मेरी पत्नी बहुत धार्मिक हैं, दयालु भी. रोज-सुबह शाम पूजा-आरती करती हैं. आस्था में तर्क नहीं होता. एक अराजकतावादी नास्तिक और मार्क्सवादी नास्तिक में फर्क यह है कि अराजक राज्य की तरह धर्म को समाप्त करना चाहता है जब कि मार्क्सवादी उन हालात को जो धर्म की जरूरत जारी रखते हैं. धर्म दुखी को खुशी और तृप्ति की आशा और खुशफहमी प्रदान करता है. जब लोगों को सही सही की खुशी और तृप्ति मिलेगी तो खुशफहमी की जरूरत नहीं रहेगी, परिणामस्वरूप न धर्म की. धर्म अपने आप बिखर जाएगा. शांति और सत्य की अलौकिकता में अन्वेषण हमारे लौकिक ज्ञान की सीमाओं का परिणाम है. भय विरासत में मिली एक अमूर्त सैद्धांतिक अवधारणा है. हमारे गांव में हमारे ही खान-दान की एक बुजुर्ग थीं जिनका कई 'भूतों-चुड़ैलों से संवाद' होता था. मैं इंटर में पढ़ता था और अनुभव से जान गया था कि भूत-वूत की बातें कपोल कल्पना है. मैंने एक दिन उनसे पूछा कि भूत-प्रेत मुझे क्यों नहीं डराते? उनका मासूम जवाब आज तक याद है. तुम्हें कैसे डराएगा, जै मनता ही ही नहीं उसे कैसे डराएगा? भूत की अमूर्त अवधारणा की बात, भय की अमूर्त अवधारणा पर भी लागू होती है.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment