कितनी अजीब है दिलों के विनिमय की बात
बनावटी लगते हैं उनके लेन-देन के जज़्बात
मुहब्बत का मुखालिफ है दिलों का कारोबार
बुनियाद-ए-इश्क है साझी समझ-ओ-सरोकार
दिल न हुआ हो गया पानी का गुब्बारा
तुम मेरा ले लो और मैं ले लूँ तुम्हारा
दिल नहीं है पैसे सी लेन-देन की चीज़
विवेक और अंतरात्मा का है अज़ीज़
रक्खो अपने-अपने दिल अपने ही पास
मिले जब किसी से कर लो उसका साथ
बढ़ने लगे अगर दो दिलों की दूरी
धोने को रिश्ता नहीं कोइ मजबूरी
मिले गर दुबारा दिल किसी दिल से
मुहब्बत के जाम पियो बैठ साथ उसके
लगती है ये कविता मर्यादा के खिलाफ
बुरा लगे सच कड़वा तो कर देना माफ़
बयान करते सभी के दिलों का ये अलफ़ाज़
मानेगा नहीं कोई छुपाने को दिल का राज
कर दो दिल को सभी बंधनों से आज़ाद
भरेगा उड़ान अक्ल-ओ-ज़मीर के साथ
(इमि/०४.११.२०१४)
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