कुछ कहती है यह तस्वीर जरूर
भंगिमा में दिखता कल के इश्क का सरूर
वर्जनाओं के भार से दबी मर्यादित मुस्कान
मन चाहता है भरना मगर संस्कारों से परे उड़ान
हिचक दिखती तोड़ने में समाज की मर्यादा
रोकती है मन को उड़ने सी ऊपर बहुत ज्यादा
बेचैन आँखें निहारती हैं ख़्वाबों के अनन्त में
चहकती हैं पक्षियां जैसे मतवाले बसंत में
(इमि/०४.११.२०१४)
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