उपभोक्ता संस्कृति
बनाम जनसंस्कृतिः युगचेतना बनाम जनचेतना
(इलाहाबाद पीयूसीयल
द्वारा इविवि छात्रसंघ भवन में, 5 अक्टूबर 2014 को स्वराज, लोकतंत्र और टिकाऊ विकास पर आयोजित
गोष्ठी में दिये भाषण का संस्मरण)
अपने युवा-बुजुर्ग
साथी ओडी सिंह ने जब पीयूसीयल की इस पहल में, उपभोक्ता-संस्कृति बनाम
जनसंस्कृति विषय पर पर्चे के साथ शरीक होने का आमंत्रण दिया तो इलाहाबाद आने
के एक और अवसर के अति-उत्साह में तुरंत हामी भर दी. किंतु अव्यवस्थित, बौद्धिक
अनुशासनहीनता के दुर्गुण की संपन्नता के चलते वायदा समय पर नहीं पूरा कर सका और
अपनी बात मुल्तवी-ए-वायदा की मॉफी शुरू की. और इलाहाबाद में जबरन मिला एकांत (forced solitude) प्रतिकूलता के भेष में वरदान साबित
हुआ और लिखने की
शुरुआत हो सकी[i]. ये विषयेतर बातें मैं
जानबूझकर कर रहा हूं क्योंकि सामाजिक सरोकार और जनहित में नियोजित विकास के किसी भी
दावेदार का अनियोजित व्यक्तित्व-कृतित्व सामाजिक अपराध है. यह अलग बात है कि यह
कृपालु समाज ऐसों को भी मॉफ कर देता है. इलाहाबाद से मेरा जैविक संबंध टूट सा गया
था. 2012 में दमनविरोधी सम्मेलन में शिरकत के बाद से इस जगह से एक नया
जैविक रिश्ता शुरू हुआ – राजनैतिक रिश्ता. यहां आकर संघर्षरत किसान-मजदूरों; छात्रों से संवाद से आशावादिता को बल मिलता है कि लोग लड़ रहे हैं जो भले ही कारपेटी मीडिया की
दृष्टिसीमा कर जाते हैं. खचाखच भरे छात्रसंघ भवन में आधे से अधिक प्रतिनिधि तथा
वक्ता – मजदूर-किसान -- आसपास के इलाकों में विस्थापन विरोधी और खनन अधिकारों के
आंदोलनों के कार्यकर्त्ता-नेता थे. सच है कि किसान-मजदूरों के जैविक बुद्धिजीवी
संघर्षों की आग में तपकर ही विकसित होते हैं. सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की दिशा
में हम जैसे जनपक्षीय बुद्धिजीवियों की उत्प्रेरक की हो सकती है. ग्राम्सी[ii]
जैविक और पेशेवर बुद्दिजीवियों पर लेख में कहा है कि किसान एक ऐसा वर्ग है जो अन्य
वर्गों को जैविक बुद्धिजीवी मुहैय्या कराता है लेकिन इसका अपना बुद्धिजीवी नहीं
होता. तब से अब तक रीजनैतिक अर्थशास्त्र की गंगा में बहुत पानी बह चुका. आज अन्य
वर्गों को जैविक बुद्धिजीवी प्रदान करने के साथ किसान वर्ग संघर्षों से अपना जैविक
बुद्धिजीवी पैदा करने लगा है. व्यापक वाह्य समर्थन के अभाव के बावजूद किसान-आदिवासियों
के विस्थापन विरोधी तथा भूमि एवं खनन के अधिकार के मौजूदा कारपोरेट विरोधी
संघर्षों में क्रांतिकारी संभावनायें अंतर्निहित हैं. किसान-आदिवासी-ग्रामीण मजदूर
जनांदोलनों में भागीदारी से अपने जैविक बुद्धिजीवी भी पैदा कर रहा है जो इसके
हितों को प्रतिपादित कर अभिव्यक्ति देता है[iii].
संघर्ष में तपकर वर्गचेतना से लैस होने की तरफ अग्रसर आंदोलनकारी नेताओं और कार्यकर्ताओं
के वक्तव्य और गीतों के शब्द ग्रामीण जनचेतना के जनवादीकरण की दिशा में आशा की
किरणें लगीं, मगर राजनैतिक शिक्षा की गहन जरूरत भी महसूस हुई. ऐसे में जब
कॉरपोरेटी, उपभोक्ता संस्कृति की मुखरता अभूतपूर्व तीब्रता से आक्रामक हो, इस
जरूरत का गुरुत्व और भी सघन हो गया है.
व्यापारिक उत्पादन-विनिमय
के सिद्धांतो पर आधारित उपभोक्तावाद, पूंजीवादी सामाजिक संबंधों की वस्तुगत सांस्कृतिक
अभिव्यक्ति है. उपभोक्ता संस्कृति ने “आवश्कता आविष्कार की जननी
है“, कथन को पलट दिया. उत्पादन आवश्कतापूर्ति के नहीं, अधिकतम मुनाफे के उद्देश्य
से बाजार के लिये होने लगा और बाज़ार के भोंपू , दूसरा “अदृश्य हाथ“ –-
दरबारी बुद्धिजीवी तथा विचारधारात्मक उपकरण –- परिवेश, शिक्षा, मीडिया, फिल्म,
खेल, समारोह आदि या तो इसे समय की जरूरत बताते हैं या फिर टीना (TINA –THERE IS NO LTERNATIVE) के तहत अपरिहार्य. विकल्पहीनता मुर्दा क़ौमों की निशानी है, जिंदा
क़ौमें कभी विकल्पहीन नहीं होतीं. अब आवश्यकता आविष्कार की जननी नहीं बल्कि “आविष्कार आवश्कता का जनक“ बन गया. इसका
उद्देश्य, भूख मिटाना नहीं बढ़ाना है. “दिल मांगे मोर“. सत्ता के विचारधारात्मक
उपकरण यथास्थिति को अपरिहार्य, समुचित और सर्वजनहिताय प्रचारित करके नई सामाजिक
चेतना का निर्माण करते हैं, जो युग चेतना बन जाती है. बदलाव के लिये युग चेतना पर
हमले की जरूरत है – जनचेतना के जनवादीकरण की. शासक वर्ग की कारपोरेटी मीडिया से
निपटने के लिये वैकल्पिक मीडिया की जरूरत है.
औद्योगिक क्रांति के शुरुआती दौर
में, पूंजीवाद को अधिकतम मुनाफ़े
के सिद्धांत पर आधारित
व्यवस्था के रूप में
परिभाषित करने तथा
ऐतिहासिक, सामाजिक प्रगति को निजी मुनाफ़ा
कमाने की करामातों का अनचाहा परिणाम
मानते वाले,
नई व्वयस्था के एक प्रमुख जैविक
बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, ऐडम
स्मिथ के अनुसार,
नियोजित परमार्थ (सामूहिक हित)
से अधिक
परमार्थ व्यक्ति के निजी
स्वार्थ सिद्धि
के उपक्रमों से अनचाहे
ही हो जाता है. मुनाफा कमाने
की बेरोक-टोक निजी
गतिविधियों और सामूहिक हित के उसके अनचाहे
परिणामों का समन्वय बाजार
के रहस्यमय “अदृश्य हाथ“[iv] करते हैं. एडम स्मिथ मुनाफ़ा कमाने की गतिविधियों के उपपरिणाम के रूप में इतिहास
की व्याख्या करते हुए जानबूझ कर समन्वयक शक्ति को सरकार न कह कर बाजार का “अदृष्य हाथ“ बताते हैं.
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो
में मार्क्स
और एंगेल्स अदृश्य
हाथों का रहस्योद्घाटन पूंजीपति वर्ग के सामान्य हितों (general interests) की कार्यकारी समिति—राज्य –
के रूप में करते हैं. लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था अपने अन्तर्निहित दोगले चरित्र के
चलते राज्य को एक निष्पक्ष इकाई घोषित करती है इसलिए शासक सार्वजनिक मंचों पर
पूंजीपतियों के कारिदा दिखने से बचता है, खासकर
उदारवादी जनतंत्र में, जहाँ सरकार जनता के
संसाधनों से पूंजीवाद की सेवा करती है लेकिन दावा जनता की सेवा करने का. यह अदृश्य
हाथ आज साफ़ दिखता है, टाटा को किसानों की जमीन पर
कब्जा दिलाने के लिए, आन्दोलनकारी किसानों पर
गोलीबारी करके 16 आदिवासी
किसानों की ह्त्या बाज़ार के अदृश्य हाथ नहीं, उड़ीसा
सरकार करती है. किसानों की जमीन पर पॉस्को को काबिज करने के लिए पान के भीटों से
समृद्ध जगतसिंहपुर के किसानों को बाज़ार के अदृश्य हाथ नहीं, भारत
सरकार उजाड रही है. जनविरोधी नीतियों का प्रस्ताव बाज़ार के अदृश्य हाथ का नहीं
बल्कि विशाल बहुमत से सत्तासीन विकास पुरुष मोदी सरकार का है.(इनकी
पूर्ववर्ती सरकारें भॊ थोड़ा हिचक
के साथ
ही सही,
यही कर रही थीं). मोदी जी
ने समीकरण बदल दिया, मुनाफाखोर की पीठ पर सत्ता के
हाथ की बजाय मुनाफखोर का हाथ सत्ता की पीठ पर पहुंचा दिया. इस तरह की बेबाक
ईमानदारी का एक ही और उदाहरण है, पूर्व प्रधानमंत्री
चंद्रशेखर, जिन्होंने गर्व से कोयला
माफिया सूरजदेव सिंह से अपनी मित्रता का सार्वजनिक इज़हार किया था. इतिहास दुहराता
नहीं, प्रतिध्वनित होता है, भयावह है
मौजूदा प्रतिध्वनि. एक ईस्ट इंडिया कंपनी को मुल्क में व्यापार
की अनुमति ने इसे 200 से अधिक सालों की गुलामी और लूट का शिकार बना दिया, विकास के
लिए तमाम दैत्याकार भूमंडलीय कंपनियों को निवेश का निमंत्रण क्या गुल खिलायेगा? उपभोक्ता संस्कृति की
इस प्रतिध्वनि
के शोर को जनसंस्कृति के इंकिलाबी नारों से ही दबाया जा सकता है.
ऐडम स्मिथ, पूंजीवादी संपत्ति के नैसर्गिक अधिकार
के प्रणेता, पूर्ववर्ती उदारवादी चिंतक, जॉन लॉक[v]
की ही तर्ज पर निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों – नागरिक समाज और राज्य -- में विभाजन रेखा
खींचते हैं. नागरिक समाज “राष्ट्र की संपत्ति“[vi]
में दिन-दूना और रात-चौगना इज़ाफा कर सकने में सक्षम है यदि इसे वाह्य हस्तक्षेप
(राजनैतिक नियंत्रण) से मुक्त किया जा सके. मतलब मुनाफे की खुली छूट. जैसे भारत की मौजूदा सरकार “इंस्पेक्टर राज“ खत्म करने के नाम पर मजदूर विरोधी
नीतियों के जरिये मुल्क के संसाधनों और लोगों की जल-जंगल-जमीन की अबाध कॉरपोरेटी लूट
को आसान बनाया जा रहा है तथा अधिकतम मुनाफ़े की डगर सरल. नई बोतल में पुरानी शराब
के मुहावरे को चरितार्थ करने वाला नवउदारवादी राज्य उदारवादी से कैसे भिन्न है,
उसकी चर्चा बाद में. दरअसल, पूंजीवाद के पैररोकार, सभी क्लासिकल उदावादी चिंतक, व्यापारिक समाज -- बाजार
-- को सम्मानजनक नाम देने के मकसद से, मर्यादित पर्याय के
रूप में “नागरिक समाज” की अवधारणा का
इस्तेमाल करते थे. आज पूंजीवाद के नवउदारवादी दौर में, आक्रामक रूप से मुखर बाजार सम्मान
के लिए किसी अन्य मर्यादोक्ति की मोहताज नहीं है, बल्कि स्वयं सम्मान
का स्रोत है. अब “नागरिक समाज“ शब्द इसकी सहयोगी
शक्ति, यनजीओ समूहों की मर्यादोक्ति है. ऐडम स्मिथ साहब का यह भी कहना है कि पूरा
समाज, सारी कायनात ही एक बाज़ार है और हर व्यक्ति व्यापारी. जिसके पास बेचने को कुछ
और नहीं है, उसके पास अपनी चमड़ी है. आदिम पूंजी का इतिहास
वे किसी मिथकीय युग में खोजते हैं जब धरती पर सब बराबर थे. कुछ तोग साधू-संतों की
तरह सात्विक जीवन बिताकर बचत व्यापार में लगाया वे पूंजीपति बन गये. बाकियों ने
दुष्टों की तरह तामशी जीवन में सब कुछ उड़ा दिया और दमड़ी वालों को चमड़ी बेचने को
मजबूर, मजदूर बन गये. सात्विक जीवन से पूंजीपति बने धीरूभाई अंबानी का उन्हीं की
तरह परिश्रमी बेटा अधिक वेतन का हक़दार होते हुये भी साधू-संतों की तरह सात्विक
जीवन क लिये 33 करोड़ में ही काम चला लेता है. वैसे सामग्री की तरह श्रम के
खरीद-फरोख्त के नैसर्गिक अधिकार का सिद्धांत जॉन लॉक पहले ही प्रतिपादित कर चुके
थे[vii].
पूंजीवाद एक दोगली प्रणाली है यह जो कहती है कभी
नहीं करती, जो करती है कभी नहीं कहती. यह स्वर्ग का वायदा करके धरती लूटती है. पूंजीवाद
नारा देता है समानता, स्वतंत्रता भाईचारे का जब कि इसका वजूद ही इनके विपरीत
सिद्धांतों पर टिका होता है. पूंजीवाद के शैशव काल में, निरंकुश और उदारवादी
राज्य के संक्रमण कालीन चिंतक, थॉमस हॉब्स समाज सें बढ़ती हुई असामनता और श्रमिक
वर्ग की आजीविका के लिए पराधीनता के ऐतिहासिक संदर्भ में, यथास्थिति का औचित्य साबित
करने के द्देश्य से, हर
व्यक्ति की स्वाभाविक स्वतंत्रता और समानता की अवधारणा का प्रतिपादन करते है. लेकिन
आगे इस ‘प्रकृति-प्रदत्त‘ स्वतंत्रता बरदान
की बजाय अभिशाप बताते है.हॉब्स साहब के तर्क वही हैं जो स्वशासन या सामूहिक
स्वामित्व के विरोधी भोंपू आज तक देते आ रहे हैं. अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य
स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है. हॉब्स उसे स्वाभाविक रूप से असमाजिक, एकाकी,
आत्मकेंद्रित, स्वार्थी, अहंकारी, झगड़ालू और पशुवत निर्दयी समझते हैं जो हर किसी
पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिस करता है. ऐसे में समानता स्वतंत्रता वरदान
की जगह अभिशाप बन जाती है. इस लिये उसे यदि अमन चैन की जिंदगी जीना है तो वह डंडे
से हांके जाने के लिए प्रकृति प्रदत्त अधिकार निरंकुश शासन को सौंपने का समझौता
करे या जो भी शासन हो उसे ही स्वनिर्मित मान आज्ञापालन करे. वे खास ढंग से समाजीकृत व्यक्ति के मनोभाव को
सार्वभौमिक बताते हैं. पूंजीवाद के पहले सर्वमान्य सिद्धांतकार जॉन लॉक कहते हैं
कि प्रकृति के उपहारों पर सभी समान और स्वतंत्र व्यक्तियों का समान अधिकार है
लेकिन उनपर श्रम व्यय करके व्यक्ति करके निजी संपत्ति निर्मित करता लेकिन जिस निजी
पूंजीवादी संपत्ति के अधिकार की वे हिमायत करते हैं वह श्रम से नहीं बल्कि श्रम के
शोषण, शिल्प उद्योगों के विनाश, किसानों की बेदखली और औपनिवेशिक लूट से संचित की
जा रही थी. ऐडम स्मिथ पूंजीपतियों की संपत्ति को “ राष्ट्र की संपत्ति बताते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद को देश का पहरेदार बताकर देश की बाजार भूमंडलीय
पूंजी की लूट के लिए खोल देते हैं. शासक वर्गों के करनी-कथनी के इस अंतरविरोध का
लगातार पर्दाफास करते रहने की जरूरत है.
मार्क्स और एंगेल्स ने 1845 में जर्मन
विचारधारा[viii]
में लिखा कि हर युग में शासक वर्ग के विचार शासक विचार होते हैं. भौतिक उत्पादन
की शक्तियों पर जिस वर्ग का नियंत्रण होता है वही वर्ग बौद्धिक उत्पादन भी
नियंत्रित करता है, भौतिक उत्पादन के साथ ही बौद्धिक उत्पादन के साधनों की
दशा-दिशा भी वही तय करता है. जिनके पास बौद्धिक उत्पादन के साधन नहीं होते, वे
शासक विचारों से शासित होते हैं. शासक वर्ग के विचार मौजूदा वर्चस्व के संबंधों की
ही अभिव्यक्ति हैं और आदर्श भी. मार्क्स इन विचारों को विचारधारा कहते हैं जो कि
भ्रांति या मिथ्या-चेतना है. थॉमस हॉब्स से शुरू करके सभी उदारवादी चिंतक
प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से नवोदित शासकवर्ग के हितों को सार्वभौमिक हित के रूप में
चित्रित करते हैं. जिसका आशय यह है कि पूंजीवाद ही सर्वोचित तथा अपरिहार्य है
जिसमें हर व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार पुरस्कृत होता है और अयोग्यता के लिए दंडित. हर
युग का शासक वर्ग व्यवस्था के वैधीकरण के लिए वैचारिक वर्चस्व निर्मित करता है जो
शोषण-दमन पर आधारित व्यवस्था को न्यायपूर्ण बताता है जिसे शोषित भी आत्मसात कर
लेता है. यही मिथ्या-चेतना युग-चेतना बन
जाती है. शोषित युगचेतना के प्रभाव में शोषण को अपनी कमियों का परिणाम और नियति
मान लेता है.
लाभोन्मुख अराजक, अनियंत्रित पूंजीवादी विकास के आंतरिक
अंतर्विरोधों से उपजा पूंजीवादी संकट-- 1930 के दशक की मंदी-- और रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ के राज्य नियंत्रित पूंजीवाद की
मिसाल ने पूंजीवादी देशों के लिए, एडम स्मिथ को अलविदा कह, पूंजीवाद को ध्वस्त
होने से बचाने के लिए, पुलिस (अहस्तक्षेपयीय) राज्य को अलविदा कल्याणकारी राज्य
अपनाया. गौर तलब है कि मंदी के संकट का कारण था , अतिरिक्त माल (सरप्लस ऑफ गुड्स),
यानि, ज्यादा उत्पादन और लोगों (उत्पादकों) में क्रय शक्ति की कमी के चलते कम खपत.
संकट से उबरने के लिए अर्थव्यवस्था पर राज्य-नियंत्रण, सार्वजनिक इकाइयों के गठन
और सामाजिक सुरक्षा की नीतियों का रास्ता अपनाया गया. यह भी गौरतलब है कि सोवियत
संघ में राज्य नियंत्रित पूंजीवादी विकास डेढ़ दशकों में यूरोप और अमेरिका की
बराबरी पर पहुंच गया. दूसरे विश्वयुद्ध के समय सोवियत संघ अमेरिका की बराबरी का
आर्थिक-सामरिक शक्ति बन चुका था. भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक देशों में कल्याणकारी
राज्य की स्थापना पूंजीवाद को ध्वस्त होने से बचाने के लिए नहीं, स्थापित करने के
लिए किया गया, क्योंकि पूंजीवादी विकास यहां नदारत था. हमारे पूर्व प्रधानमंत्री,
अर्थशास्त्री मनमोहन जी भले ही इंगलैंड जाकर विकास के लिए अंग्रेज प्रभुओं का
गुणगान करें लेकिन हक़ीक़त यह है कि 1947 में जब अंग्रज गये तो अर्थव्यवस्था में
सेवा क्षेत्र समेत औद्योगिक योगदान लगभग 7% था. गौर तलब है कि 19वीं शताब्दी के
पहले दशक तक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का मतलब होता था, भारत तथा पूर्व-एशिया,
मुख्यतः चीन के उत्पादों का व्यापार. पूंजीवादी विकास, यानि, औद्योगीकर के लिये
विशाल औद्योगिक अधिरचना की आवश्यकता थी. यद्यपि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग अस्तित्व
में आ चुका था लेकिन अधिरचना में निवेश में, उनमें से न
तो किसी की रुचि थी न ही निजी रूप से कोई सक्षम था. इसकी जिम्मेदारी राज्य पर आ
पड़ी और विशाल सार्वजनिक क्षेत्र वजूद में आया.
1980 के दशक शुरू
होते-होते मार्गेट थैचर से रोनाल्ड रीगन तक को कल्याणकारी अर्थव्यवस्था बाजार की
ताकतों पर बोझ और सार्वजनिक क्षेत्र सफेद हाथी नजर आने लगे. विनिवेश के नाम पर
सार्वजनिक संपदा की विक्री शुरू हो गयी और उदारीकरण के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र
का निजीकरण. धीरे-धीरे मंद गति संक्रमण रोग की तरह नवउदारवादी “सुधार“ अन्य विकसित-अविकसित और विकासशील देशों में फैलने लगा. बर्लिन की
दीवार के पतन के साथ नवउदारवादी अभियान की मुखरता आक्रामक हो उठी. सोवियत संघ के
पतन बाद, कॉरपोरेट नियंत्रित भूमंडलीय पूंजी के निर्देशन में, विश्व बैंक, आईयमयफ तथा डब्ल्यूटीओ जैसी
संस्थाओं के माध्यम से भूमंडलीकरण के नाम पर सभी देशों पर थोपा जाने लगा और
इसके इतिहासकार ने इतिहास का अंत घोषित कर दिया. निजीकरण-उदारीकरण विकास का नया
मंत्र बन गया. दर-असल जिस उदारवाद के रोग के इलाज के रूप में कल्याणकारी राज्य अपनाया
गया, उसे बीमार करके या बीमार घोषित करके, नवउदारीकरण के नाम पर पुराने रोग को दवा
बना दिया. नई बोतल में पुरानी शराब. नवउदारवादी दावे गुब्बारा 2 दशक से भी कम समय में ही फूट गया. जिसमें सरकारी खजाने के अनुदान की हवा भर कर फौरी समाधान निकाल लिया गया. लेकिन यह
लक्षण का इलाज है, रोग का नहीं. मंदी का संकट अतिरिक्त माल से पैदा संकट था तो
मौजूदा संकट अतिरिक्त पूंजी का संकट है. भूमंडलीय पूंजी को निवेश के लाभप्रद
नीड़ों की तलाश है, टीना(कोई और विकल्प नहीं) के तहत नरसिंह राव सरकार से शुरू
मुल्क की नीलामी की निरंतर प्रक्रिया मोदी राज में त्वरित होने के खतरनाक इशारे कर
रही है. राज्य के विचारधारात्मक उपकरण नवउदारवाददी नीतियों को विकास के लिए आवश्यक
एवं अपरिहार्य प्रचारित कर रहे हैं. बढ़ती बेरोजगारी, ठेका प्रथा, मजदूरों की
बेहाली आदि को आर्थिक प्रगति का अनचाहा किंतु अपरिहार्य परिणाम बताया जा रहा है,
जिसे युग चेतना के प्रभाव में लोग मान भी लेते हैं. उदारवादी और नवउदारवादी राज्यों में मुख्य फर्क यह है कि उदारवादी राज्य
अर्थव्यवस्था में अहस्तक्षेप की नीति पर चलते हुये पूंजी का अबाध संचय सुनिश्चित करे. नवउदरवादी
राज्य विकास में सहभागी है, कॉरपोरेट का अधिकतम मुनाफा सुनिश्चित करने में सक्रिय
भुमिका निभाता है, सरकारी मशीनरी के उपयोग से लोगों के जल-जमीन-जंगल पर कारपोरेटी
कब्जा दिला कर.
क्रांतिकारी
परिवर्तन के 2 कारक होते हैं – वस्तुनिष्ठ(objective) और आत्मनिष्ठs(subjective). वस्तुनिष्ठ कारक है व्यवस्था के अंतरविरोधों की
परिपक्वता से उपजा व्यवस्था का व्यापक संकट और आत्मनिष्ठ कारक है नई सामाजिक
शक्तियों की वैकल्पिक उपस्थिति. पूंजीवाद के संकट कई बार सामने आया. 1930 के दशक
की मंदी और 2007 से शुरू मौजूदा संकट ज्वलंत उदाहरण हैं. लेकिन दोनों ही समय आत्मनिष्ठ
कारक – वर्ग चेतना से लैस संगठित मजदूर वर्ग – गैर मौजूद रहा. अमेरिका और युरोप के
स्वस्फूर्त ऑकुपाई वालस्ट्रीट आंदोलन या भारत में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन यदि
वैचारिक-संगठनात्मक आधार पर संगठित होते तो कुछ अलग नतीजे होते. खैर कोई भी आंदोलन
व्यर्थ नहीं जाता. स्वस्फूर्त आदोलनों की भी ऐतिहासिक भूमिका होती है. दर-असल ये
सारे जनांदोलन जारी वर्गसंघर्ष हिस्से ही हैं. भौतिक या बौद्धिक श्रमशक्ति बेचकर आजीविका
कमाने वाला कामगार (मजदूर), पूजीपति वर्ग के समक्ष अपने-आप में एक वर्ग है, लेकिन
वह भीड़ का एक टुकड़ा भर बना रहता है जब तक वह साझे वर्ग हित के आधार पर संगठित
नहीं होता. मजदूर एक राजनैतिक दल के रूप में ही लामबंद हो सकता है. मजदूरों के ‘अपने-आप में वर्ग‘ से ‘अपने
लिए वर्ग‘ में परिवर्तन के बीच की जटिल कड़ी
है – वर्ग चेतना. मजदूर जब व्यवस्था के अंतरविरोधों को समझकर, वर्गहित के आधार
वर्ग चेतना से लैस होकर ही लामबंद हो पूंजीवाद के विरुद्ध निर्णायक जंग का नेतृत्व
करेगा. जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, शासक वर्ग के विचार शासक विचार भी होते है वही
युग चेतना का निर्माण करते हैं. युगचेतना से निर्धारित जनचेतना के जनवादीकरण से
युगचेतना को सार्थक चुनौती देकर ही जनचेतना को वर्गचेतना में तब्दील की जा सकती
है. जनचेतना के जनवादीकरण से निकली जनसंस्कृति ही उपभोक्ता संस्कृति के फरेब का
पर्दाफास कर सकती है. जनांदोलनों में भागीदारी से तो जनचेतना का जनवादीकरण तो होता
ही है लेकिन जनपक्षीय बुद्धिजीवियों और
क्रांतिकारी संस्कृतिकर्मियों की भी अहम भूमिका है.
ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली ११०००७
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